1992 का सीलमपुर : जब एक IPS दंगाइयों को मारने के लिए रात भर दफ्तर में डटा रहा

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नई दिल्ली | सब वक्त-वक्त की बात है। तब साल 1992 था, अब फरवरी 2020 है। साल 1992 में दिल्ली के पुलिस कमिश्नर थे मुकुंद बिहारी कौशल यानी एम.बी. कौशल। अब दिल्ली के ‘काम-चलाऊ’ और दिल्ली को सुरक्षित रख पाने में पूरी तरह ‘फेल’ होकर घर वापसी कर रहे पुलिस कमिश्नर हैं अमूल्य पटनायक। उस वक्त दिसंबर, 1992 की शुरुआत में अयोध्या में बाबरी मस्जिद को लेकर बबाल शुरू हुआ था। इस बार सीएए जैसे कानून का विरोध मुद्दे की जड़ है।

28 साल बाद भी अगर दिल्ली में कुछ नहीं बदला तो वो है हिंसा की जगह। मतलब उस वक्त दिल्ली में खून से लाल हुई थी सीलमपुर-जाफराबाद की जमी। और 23 फरवरी, 2020 यानी मंगलवार को भी यही जमीन खून से रंगी गई।


1992 और 2020 के सीलमपुर, जाफराबाद में खेली गई खून की होली में सबसे बड़ा अगर कोई फर्क है, तो वह है कि उस दौरान एक दिल्ली पुलिस के सिपाही के महज जख्मी होने भर से। 20-25 उपद्रवियों को उस जमाने में देश के एक अदद दबंग आईपीएस ने गोलियों भून डाला था। इस बार एक हवलदार, आईबी के एक जांबाज सुरक्षा सहायक सहित करीब 45 निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया उपद्रवियों ने। हैरत की बात यह है कि दिल्ली पुलिस किसी भी उपद्रवी को ढेर नहीं कर सकी।

आईएएनएस अब आपके सामने खोल रहा है उस आईपीएस का नाम और तीन दशक बाद सुनवा रहा है उसी आईपीएस की मुंहजुबानी जिसने 28 साल पहले एक सिपाही को सीलमपुर इलाके में उपद्रवियों द्वारा महज चाकू मारे जाने के बदले निपटा दिए थे 20-25 दंगाई। वो दबंग आईपीएस जो जिले का डीसीपी होने के कारण पूरी रात इसी उत्तर पूर्वी जिले के जाफराबाद, चांद बाग, करावल नगर, सीलमपुर को दंगों की आग में झोंके जाने से बचाने की उम्मीद पाले रात भर पड़ा रहा था अपने दफ्तर में। नाम है दीपक मिश्रा। दीपक मिश्रा यूटी कैडर 1984 बैच के भारतीय पुलिस सेवा के रिटायर्ड अफसर हैं। वे केंद्रीय सुरक्षा बल यानी सीआरपीएफ से विशेष निदेशक के पद से रिटायर हो चुके हैं।

शुक्रवार को आईएएनएस द्वारा विशेष बातचीत के दौरान जब दीपक मिश्रा को काफी कुरेदा गया तो वे बोले, “सन 1992 दिसंबर महीने में मैं उत्तर पूर्वी जिले का डीसीपी था। मुझे पता चल चुका था कि बाबरी की घटना के बाद दिल्ली के सीलमपुर में फसाद फैलाये जाने की तैयारी चल रही है। मैं अलर्ट तो था, मगर किसी को कुछ बताया नहीं। सिर्फ अपने पास मौजूद डीसीपी रिजर्व एक कंपनी फोर्स को मैंने तैयार रहने को कहा। मैंने यह भी कहा था डीसीपी रिजर्व के जवानों को कि वे अपनी थ्री-नॉट-थ्री राइफलें अच्छी तरह से जांच परख लें। किसी की राइफल ने अगर ऐन वक्त पर फायर करने में धोखेबाजी की तो नहीं बख्शूंगा। साथ ही एक राइफल मैंने रात में ही अपने पास भी रख ली।”


बकौल दीपक मिश्रा, “अभी मैं यह सब तैयारियां कर ही रहा था। तब तक खबर आई कि दिल्ली पुलिस के एक सिपाही को सीलमपुर में चाकू मार दिया गया है। मैं इसी मौके की तलाश में था। मैं चाह रहा था कि बात दूसरी ओर से बढ़ाई जाए ताकि पुलिस बाद में कदम उठाए। हां इतना मैंने ठान रखा था कि अगर जिले में किसी बेकसूर और दिल्ली पुलिस के किसी बेकसूर पर जरा भी खुरेंच आ गई, तो हिसाब बराबर कर दूंगा।”

“सिपाही के चाकू लगने की खबर मिलते ही मैं अपने साथ डीसीपी रिजर्व के हथियार बंद जवानों को लेकर सीलमपुर में निकल गया। जाते ही इलाके में सबसे पहले मैंने पुलिस कमिश्नर को बताने में वक्त जाया करना मुनासिब नहीं समझा। कर्फ्यू लगा दिया। कर्फ्यू का लाउडस्पीकरों पर ऐलान कर दिया। बता दिया कर्फ्यू में भी अगर कोई हरकत करने की हिमाकत करेगा तो आवाज नहीं उसकी ओर पुलिस की गोली पहुंचेगी। कर्फ्यू और उसका ऐलान असर कर गया। इसके बाद भी कुछ उपद्रवी सड़क पर आने लगे। मैंने पहले सोचा कि रिवॉल्वर से हवाई फायर करके ही उपद्रवी डर जाएंगे और भगा जाएंगे। हुआ इसका उल्टा। उपद्रवियों की भीड़ दिल्ली पुलिस को कमजोर समझने की गलती कर बैठी।”

“दंगाई खाकी की इज्जत को खाक में मिलाने की हिमाकत करते या उन्हें हम और मौका देते, मैंने थ्री-नॉट-थ्री जैसे तेज धमाके और सटीक निशाने वाले राइफल साथ मौजूद एक सिपाही से ले ली। उसके बाद मेरी और मेरे साथ मौजूद जो रिजर्व फोर्स थी उसे सड़कों गलियों में सिर्फ और सिर्फ गोलियां से छिदी पड़ी 20-25 दंगाईयों के शव ही इधर उधर पड़े दिखाई दिए। उसके बाद उन दिनों मुझे अपने जिले में कहीं कोई दंगाई कभी गर्दन ऊपर उठाते, हाथ में ईंट-पत्थर लिए या पेट्रोल बम या फिर हाथों में कोई हथियार-छूरा-चाकू लहराता देखने को नसीब नहीं हुआ।”

(इस खबर को न्यूज्ड टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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