Batukeshwar Dutt Birthday: बटुकेश्वर दत्त को अपने जिंदा रहने पर पछतावा होता था

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Batukeshwar Dutt Birthday: बटुकेश्वर दत्त को अपने जिंदा रहने पर पछतावा होता था

बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता ‘गोष्ठ बिहारी दत्त’ कानपुर में नौकरी करते थे। बटुकेश्वर की स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज, कानपुर में हुई थी। उन्होंने 1924 में मैट्रिक की परीक्षा पास की थी।

इसी दौरान उनके माता व पिता दोनों का देहान्त हो गया। इसी समय वे सरदार भगत सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद के सम्पर्क में आए और क्रान्तिकारी संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन’ के सदस्य बन गए थे।


बटुकेश्वर दत्त ने भगत सिंह के साथ मिलकर 1929 में तत्कालीन ब्रितानी संसद में बम फेंका था और साथ में गिरफ़्तार हुए थे।

बटुकेश्वर दत्त पर किताब लिखने वाले अनिल वर्मा बताते हैं कि, “बटुकेश्वर दत्त का सबसे बड़ा काम यही कहा जा सकता है। आगरा में एक बम फैक्ट्री स्थापित की गई थी जिसमें बटुकेश्वर का बड़ा हाथ रहा। बम फेंकने के लिए उन्हें काला पानी की सज़ा दी गई। इससे पहले लाहौर में बटुकेश्वर दत्त, भगत सिंह और यतींद्र नाथ ने 144 दिनों की हड़ताल की। इस दौरान यतींद्र नाथ की मौत हो गई।”

बटुकेश्वर दत्त देश की आज़ादी देखने के लिए जिन्दा बचे रहे लेकिन उनका सारा जीवन निराशा में बीता। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की मौत के दत्त बुरी तरह टूट गए थे।


अनिल वर्मा बताते हैं कि, “बटुकेश्वर दत्त को कोई सम्मान नहीं दिया गया स्वाधीनता के बाद। निर्धनता की ज़िंदगी बिताई उन्होंने। पटना की सड़कों पर सिगरेट की डीलरशिप और टूरिस्ट गाइड का काम करके बटुकेश्वर ने जीवन यापन किया। उनकी पत्नी मिडिल स्कूल में नौकरी करती थीं जिससे उनका घर चला।”

उनकी ये हालत देखकर उनके मित्र चमनलाल आज़ाद ने एक लेख में लिखा कि “क्या दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए, परमात्मा ने इतने महान शूरवीर को हमारे देश में जन्म देकर भारी गलती की है। खेद की बात है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्र कराने के लिए प्राणों की बाजी लगा दी और जो फांसी से बाल-बाल बच गया, वह आज नितांत दयनीय स्थिति में अस्पताल में पड़ा एड़ियां रगड़ रहा है और उसे कोई पूछने वाला नहीं है।”

आगे चलकर उन्हें 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया। दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने पत्रकारों से कहा था कि, “मैं सपने में भी नहीं सोच सकता था कि उस दिल्ली में मैंने जहां बम डाला था, वहां एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लादा जाऊंगा।”

एक जांच में पता चला कि उन्हें कैंसर है और बस कुछ ही दिन उनके पास बचे हैं। कहा जाता है कि बीमारी के वक़्त भी वे अपने साथियों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को याद करके अक्सर रो पड़ते थे।

एक दिन जब भगत सिंह की मां विद्यावती जी अस्पताल में दत्त से उनके आखिरी पलों में मिलने आईं तो उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा जताते हुए कहा कि उनका दाह संस्कार भी उनके मित्र भगत सिंह की समाधि के बगल में ही हो।

20 जुलाई 1965 की रात एक बजकर पचास मिनट पर उन्होंने आखिरी सांस ली। उनका अंतिम संस्कार उनकी इच्छा के ही अनुसार भारत-पाक सीमा के करीब हुसैनीवाला में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधि के पास किया गया।

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