जन्मदिन विशेष : केवल आठवीं तक पढ़े, पंडित ही नहीं, महापंडित थे राहुल सांकृत्यायन

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जन्मदिन विशेष : केवल आठवीं तक पढ़े, पंडित ही नहीं, महापंडित थे राहुल सांकृत्यायन

पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव में पैदा हुए, बिना किसी बड़ी औपचारिक डिग्री के महापंडित की उपाधि से विभूषित महापंडित राहुल सांकृत्यायन आज भले ही हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनका शब्द संसार हमारे पास है। हम चाहें, तो उनके अनुभवों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। जीवन को सार्थक बना सकते हैं। वे लगभग 30 भाषाओं के जानकार थे। उन्होंने 140 किताबें लिखी थीं जिनके विषय इतिहास से लेकर दर्शन तक फैले थे।

सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहां


जिंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहां

ये ‘शेर’ ख्वाजा मीर ‘दर्द’ का है। इसे पढ़कर एक ही नाम जेहन में आता है और वो है महापंडित राहुल सांकृत्यायन।

राहुल सांकृत्यायन का जन्म उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ के पंदहा गांव में 9 अप्रैल, 1893 को एक भूमिहार ब्राह्मण परिवार में हुआ। शायद ये कम ही लोगों को पता होगा कि महापंडित के नाम से मशहूर राहुल सांकृत्यायन का बचपन में नाम केदारनाथ पाण्डेय था। उनके पिता गोवर्धन पाण्डेय और माता कुलवंती देवी थीं। माता का निधन बचपन में ही हो गया था इसलिए उनकी शुरुआती परवरिश ननिहाल में हुई।


घर से भागकर पूरी दुनिया को घर बना लिया

सभी जानते हैं कि राहुल सांकृत्यायन की औपचारिक शिक्षा केवल मिडिल स्कूल तक ही हुई थी। इसमें सामान्य भारतीय परिवारों की तरह परिवार की आर्थिक तंगहाली कारण नहीं थी बल्कि शिक्षा और सामाजिक मान्यताओं की औपचारिकताओं के प्रति उनके मन में पनपता विद्रोह था जिसके लिए उन्होंने बचपन से बार-बार घर से पलायन किया। उन दिनों बाल विवाह का चलन था और इनकी भी शादी बचपन में ही करा दी गई। यह बात उन्हें जमी नहीं। वो घर छोड़ कर भागे और साधु हो गए। जो घर से निकले तो पूरी दुनिया को घर बना लिया। कोलकाता, काशी, दार्जिलिंग, तिब्बत, नेपाल, चीन, श्रीलंका, सोवियत संघ… कदमों से उन्होंने दुनिया नाप दी। जहां गए, वहां की जुबान सीखी और फिर से कुछ लेकर और कुछ देकर निकले।

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

कबीर जी का ये दोहा भी महापंडित पर एकदम फिट बैठता है। राहुल सांकृत्यायन ने कभी कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली। लेकिन कहते हैं ना जिनमें अनुभवों से सीखने की क्षमता होती है, उनके लिए तो जीवन से बड़ा गुरु कोई हो ही नहीं सकता। महापंडित ने भी इसी बात को अंगीकृत कर लिया। जीने के क्रम में उन्हें जो अनुभव मिला, जो देखा-सुना, जो भोगा और महसूस किया, उन सभी को अपने भीतर समाहित करते चले गए राहुल सांकृत्यायन।

पंडित ही नहीं, महापंडित थे राहुल सांकृत्यायन

अनेक बड़े-बड़े विद्वान हुए, जिन्होंने कई धर्म ग्रंथों और शास्त्रों का अध्ययन किया, जो पंडित कहलाए। लेकिन राहुल सांकृत्यायन को जीवन ने पंडित ही नहीं, महापंडित बनाया और इस महापंडित के ज्ञान के सागर में आज भी अनगिनत लोग डुबकी लगाते हैं। वो ऐसे महाज्ञानी थे, जिन्हें सोवियत संघ और श्रीलंका में पढ़ाने के लिए बुलाया गया। यह असधारण बात है और यह उनके असाधारण व्यक्तित्व का परिचायक भी है। राहुल सांकृत्यायन का जन्म हिंदू भूमिहार ब्राह्मण परिवार में हुआ। बाल विवाह हुआ, तो प्रतिक्रिया में घर छोड़ कर भागे और दयानंद सरस्वती के अनुयायी यानी आर्य समाजी बन गए। साधु बन गए और उनका नाम केदारननाथ पाण्डेय से ‘रामोदर साधु’ हो गया। फिर 1930 में श्रीलंका पहुंचे और वहां बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ बने और ‘सांकृत्य’ गोत्र होने के कारण सांकृत्यायन कहलाए। इन दौर में ईश्वर में उनकी आस्था खत्म हो चुकी थी, लेकिन पुनर्जन्म में यकीन बना हुआ था।

ऐसे कितने ही क्षेत्रों में उन्होंने अभूतपूर्व योगदान दिया था जिसका वर्णन न जाने कितने शोधग्रंथों का प्रेरणास्रोत बन सकता है। बहुत से धार्मिक लोग उम्र के आखिरी पड़ाव में नास्तिक हो जाते हैं और बहुत से नास्तिक आस्तिक बन जाते हैं। जीवन के आखिरी दिनों में उनका झुकाव कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों की ओर हुआ और पुनर्जन्म या फिर मृत्य के बाद के जीवन पर उनका यकीन खत्म हो गया। जब कोई लंबा सक्रिय जीवन जीए तो वैचारिक स्थिति में बदलाव स्वभाविक होते हैं। यह जीवन के अनुभवों पर निर्भर करता है। कुछ अनुभव ऐसे होते हैं जो जीवन की धारा बदल देते हैं। कुछ ऐसा ही राहुल सांकृत्यायन के साथ हुआ और कई बार हुआ और उसमें एक निरंतरता बनी हुई थी। रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं होते। लोगों को इस बात का जोर से प्रचार करना चाहिए कि धर्म और ईश्वर गरीबों के सबसे बड़े दुश्मन हैं।

दर्जन से अधिक भाषाओं के ज्ञाता

कभी आपने सोचा है कि आखिर कोई व्यक्ति कितनी भाषा बोल सकता है? साधारण आदमी तो दो-तीन भाषा तक सीमित रहते हैं। कुछ होते हैं तो चार-पांच भाषाएं सीख लेते हैं। लेकिन राहुल सांकृत्यायन एक दर्जन से ज्यादा भाषाओं पर पकड़ रखते थे। वो भोजपुरी, हिंदी, संस्कृत, पाली, उर्दू, अरबी, फारसी, सिंघली, तमिल, कन्नड़, फ्रेंच और रूसी जुबान में दखल रखते थे।

कोई व्यक्ति कितने विषयों पर पकड़ रख सकता है? दो-तीन विषय… लेकिन राहुल सांकृत्यायन अनगिनत विषयों पर पकड़ रखते थे। उन्होंने समाजशास्त्र, धर्म, आध्यात्म, दर्शन, साम्यवाद, इतिहास, भाषा विज्ञान, संस्कृति… जैसे अनेक विषयों पर गंभीर पुस्तकें लिखी हैं। उनके यात्रा वृतांत तो लाजवाब रहे हैं।

निजी जीवन और परिवार

राहुल सांकृत्यायन की तीन शादियां हुईं। पहली शादी बचपन में हो गई। उनकी पत्नी का नाम संतोषी देवी था। लेकिन उनसे उनकी मुलाकात नहीं हुई। उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा है कि 40 साल की उम्र में उन्हें बस एक बार देखा था।1937-38 में लेनिनग्राद यूनिवर्सिटी में पढ़ाने के दौरान उनकी मुलाकात लोला येलेना से हुई। दोनों में प्रेम हुआ और शादी हुई। वहीं उनके बड़े बेटे इगोर का जन्म हुआ। जब वो भारत लौटे, तो उनकी पत्नी और बेटा वहीं रह गए। जीवन के आखिरी दौर में उनकी शादी डॉ. कमला से हुई। उनकी तीन संतान हुईं। एक बेटी और दो बेटे। करीब 70 साल की उम्र में 14 अप्रैल, 1963 को दार्जिलिंग में उनका निधन हुआ।

राहुल सांकृत्यायन की रचनाएं

कहानियां

सतमी के बच्चे, वोल्गा से गंगा,

बहुरंगी मधुपुरी

कनैला की कथा

उपन्यास

बाइसवीं सदी

जीने के लिए

सिंह सेनापति

भागो नहीं, दुनिया को बदलो

मधुर स्वप्न

राजस्थानी रनिवास

विस्मृत यात्री

दिवोदास

आत्मकथा

मेरी जीवन यात्रा (पांच खंड में)

यात्रा वृतांत

किन्नर देश की ओर

चीन में क्या देखा

मेरी लद्दाख यात्रा

मेरी तिब्बत यात्रा

तिब्बत में सवा वर्ष

रूस में पच्चीस मास

दर्शन और इतिहास

मज्झिम निकाय – हिंदी अनुवाद

दर्शन दिग्दर्शन

मध्य एशिया का इतिहास

मानव समाज

राहुल सांकृत्यायन ने इनके अलावा भी जीवन में बहुत कुछ लिखा। उनके लिखी पुस्तकों की संख्या 100 के करीब बताई जाती है। कुछ ऐसी पुस्तकें भी हैं जो कभी प्रकाशित नहीं हुईं। उनका यह साहित्यिक सफर अद्भुत है। उनकी पुस्तक “मध्य एशिया का इतिहास” के लिए 1958 में उन्हें साहित्य अकादमी अवॉर्ड मिला। सृजन के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए 1963 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

महापंड़ित का जीवन एक अनवरत यात्री का जीवन है। उनके अनुसार यात्रा मनुष्य को स्वतंत्र, ऊर्ध्वगामी उदार, तर्कशील और मानवीय बनाती है। इन आधारों पर वे किसी भी बड़े-से-बड़े विश्वास, आस्था को उत्तर-आधुनिक अर्थों में विखंडित करने का साहस रखते हैं बल्कि उसकी सीमाओं से मुक्त हो नई दिशाओं में बढ़ने का जोखिम भी उठाते हैं।

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