जन्मदिन विशेष: पिता बनाना चाहते थे अफसर, मुंबई के मुशायरे ने बदली शकील बदायूं की जिंदगी

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जन्मदिन विशेष: पिता बनाना चाहते थे अफसर, मुंबई के मुशायरे ने बदली शकील बदायूं की जिंदगी

मशहूर शायर और गीतकार शकील बदायूं का जन्म 03 अगस्त 1916 को उत्तर प्रदेश के बदांयू कस्बे में हुआ था। शकील को उनके वालिद पढ़ा-लिखाकर एक काबिल अफसर बनाना चाहते थे। इसके लिए बचपन में ही उन्हें अरबी, फारसी, उर्दू और हिंदी की शिक्षा दी गई। वह मेहनत से पढ़ाई करते थे लेकिन दिल से शायर थे। उन्हें अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में उच्च शिक्षा के लिए भेजा गया तो वहां पर होने वाले मुशायरों ने उन्हें मंझे हुए शायर में बदल दिया।

रिश्तेदार से जगा शायरी का शौक

दरअसल शकील को शायरी का शौक़ करीबी रिश्तेदार, उस जमाने के मशहूर शायर जिया उल कादिरी से आया। वह उन्हें ट्यूशन भी पढ़ाते थे उन्हीं की शार्गिदी ने शकील को शायर बना दिया। अलीगढ़ में पढ़ाई पूरी करने के बाद वह 1942 से 46 तक दिल्ली में अफसर रहे, और इस तरह से अपने वालिद का ख़्वाब पूरा किया। इस बीच मुशायरा और शायरी से रिश्ता नहीं टूटा।


मुंबई के मुशायरे से बदली जिंदगी

शकील की जिंदगी में बड़ा मोड़ तब आया जब सन 1946 में एक मुशायरे में शिरकत करने के लिए मुंबई गए। उनकी मुलाकात संगीतकार नौशाद से हो गई। नौशाद ने शकील की तारीफ की और निर्माता निर्देशक एआर कारदार से मिलवाया। उन्होंने जब शकील का लिखा गीत- ‘हम दर्द का अफसाना दुनिया को सुना देंगे, हर दिल में मोहब्बत की आग लगा देंगे’ सुना तो उस वक्त बन रही फिल्म ‘दर्द’ में उन्हें लिखने का न्यौता दे डाला।

पहली फिल्म से ही शिखर पर जा बैठे

वर्ष 1947 मे अपनी पहली ही फिल्म “दर्द” के गीत “अफसाना लिख रही हूं” की अपार सफलता से शकील बदायूंनी कामयाबी के शिखर पर जा बैठे। शकील बदायूंनी के फिल्मी सफर पर यदि एक नजर डाले तो पायेंगे कि उन्होने सबसे ज्यादा फिल्में संगीतकार नौशाद के साथ ही की। उनकी जोड़ी प्रसिद्ध संगीतकार नौशाद के साथ खूब जमी और उनके लिखे गाने जबर्दस्त हिट हुये।


नौशाद-शकील-मोहम्मद रफी की तिकड़ी

हिंदी फिल्मों में यह तिकड़ी ऐसी फिट बैठी कि जब तक शकील जीवित रहे, इनके आगे कोई टिक नहीं सका। शकील के गीत, नौशाद का संगीत होता था तो आवाज़ मोहम्मद रफी की। इन्होंने ऐसे-ऐसे हिट गीत दिए जो आज भी हर इंसान को झकझोर कर रख देते हैं। इन बीस सालों में शकील बदायूंनी ने 89 फिल्मों को अपने गीतों से सजाया। दीदार, बैजू बावरा, मदर इंडिया, मुगल-ए-आजम, गंगा-जमुना, मेरे महबूब, चौदहवीं का चांद, साहब बीवी और गुलाम, कितनी फिल्मों का नाम लिया जाए।

लगातार तीन बार मिला ‘फिल्म फेयर अवार्ड’

उनकी शायरी ने जिस फिल्म को छू दिया वह सुपर हिट हो गयी। उनके हिस्से में भी लगातार तीन ‘फिल्म फेयर अवार्ड’ आए। वर्ष 1960 में प्रदर्शित ‘चौदहवीं का चांद’ के चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो, वर्ष 1961 में ‘घराना’ में गीत हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं.. और 1962 में ‘बीस साल बाद’ में कहीं दीप जले कहीं दिल, गाने के लिये फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया।

53 साल की उम्र में कहा अलविदा

शकील सिर्फ 53 साल के थे। मुंबई के एक अस्पताल में भर्ती हुए कभी ठीक होकर वापस न आने के लिए 20 अप्रैल 1970 को अस्पताल में उन्होंने आखरी सांस ली। फिल्मी दुनिया का एक सुनहरा सफ़र पूरा हो गया था।

पढ़ें उनके कुछ शेर..

‘मैं शकील दिल का हूं तर्जुमा, मोहब्बतों का हूं राजदां
मुझे फ़ख्र है मेरी शायरी, मेरी जिंदगी से जुदा नहीं।

 

‘ये फलक फलक हवाएं, ये झुकी झुकी घटायें
वो नज़र भी या नज़र है जो ना समझ ले इशारा।

मुझे आ गया यकीं सा कि यही है मेरी मंजिल
सरे राह जब किसी ने मुझे दफ्फ़तन पुकारा।

कोई आये शकील देखे ये जुनूं नहीं तो €या है
कि उसी के हो गये हम जो ना हो सका हमारा।

 

‘सुहानी रात ढल चुकी ना जाने तुम कब आओगे..
‘इश्क़ का कोई ख़ैरख्वाह तो है
तू नहीं है तेरी निगाह तो है
ज़िंदगी इस सियाह रात सही
आशिक़ी इक चराग़े-राह तो है।

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