बीसवीं सदी की हिन्दी कविता में अपने अलग काव्य-मुहावरे और भाषा-दृष्टि के साथ-साथ स्वदेशी चेतना की तेजस्विता और कविता की प्रतिरोधक आवाज की पहचान बने कवि भवानी प्रसाद मिश्र। उनका जन्म 29 मार्च, 1913 को जिला होशंगाबाद के नर्मदा-तट के एक गाँव टिगरिया में हुआ। सरल और सहज रहते हुए भवानी बाबू ने अपनी कविता में गहरी और जमीनी सच्चाइयों को बयान किया। अज्ञेय संपादित दूसरे ‘तार-सप्तक’ के सात कवियों में से एक भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएं गांधीवाद के विचार को साथ लेकर चलती हैं। उन्होंने बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, जैसी बेहतरीन कविताएं लिखी हैं। प्रकृति के करीब जाना कवि के लिए काफी आसान होता है।
शुरुआती जीवन और रचना
जीवन की शुरुआत मध्य प्रदेश के ही बैतूल जिले में एक पाठशाला खोलकर किन्तु सन् बयालीस के भारत छोड़ो आन्दोलन में लगभग तीन साल का कैदी जीवन बिताने के बाद गांधी और उनके सहयोगियों के साथ रहे। कुछेक दिनों तक ‘कल्पना’ (हैदराबाद) में रहें। उन्हेंने आकाशवाणी के दिल्ली और मुम्बई केंद्र में काम किया। इसके बाद सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय के हिन्दी खंड के सम्पादक भी रहे। बाद में गांधी मार्ग जैसी विशिष्ट पत्रिका के सम्पादक के रूप में साहित्यिक पत्रकारिता की एक रचनात्मक धारा का प्रवर्तन करते रहे।
निराशा में भी आशा
देश में गुलामी, तानाशाही और आपातकाल सब कुछ देखने-झेलने वाले भवानी बाबू ‘निराशा में भी सामर्थ्य’ के कवि हैं। कविता-संग्रह ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए साहित्य अकादेमी से सम्मानित भवानी बाबू का यकीन हालात कैसे भी हों, हमेशा जूझते और लिखते रहने में था। मिश्र जी की कविताओं को पढ़कर ऐसा लगता है उनका जीवन प्रकृति के काफी करीब है। उन्होंने बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, जैसी बेहतरीन कविताएं लिखी हैं। प्रकृति के करीब जाना कवि के लिए काफी आसान होता है।
कविता-संग्रह ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए साहित्य अकादेमी से सम्मानित भवानी प्रसाद मिश्र का यकीन हालात कैसे भी हों, हमेशा जूझते और लिखते रहने में था. आखिर उन्होंने यों ही तो नहीं कहा होगा कि ‘‘कुछ लिख के सो, कुछ पढ़ के सो, तू जिस जगह जागा सवेरे, उस जगह से कुछ बढ़ के सो…’’
पेश है भवानी प्रसाद मिश्र की एक ऐसी कविता
‘कवि’
कलम अपनी साध
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध
यह कि तेरी भर न हो तो कह
और बहते बने सादे ढंग से तो बह
जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख
चीज ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए
बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए
फल लगें ऐसे कि सुख–रस सार और समर्थ
प्राण संचारी की शोभा भर न जिनका अर्थ
टेढ़ मत पैदा कर गति तीर की अपना
पाप को कर लक्ष्य कर दे झूठ को सपना
विंध्य रेवा फूल फल बरसात और गरमी
प्यार प्रिय का कष्ट कारा क्रोध या नरमी
देश हो या विदेश मेरा हो कि तेरा हो
हो विशद विस्तार चाहे एक घेरा हो
तू जिसे छू दे दिशा कल्याण हो उसकी
तू जिसे गा दे सदा वरदान हो उसकी