जन्मदिन विशेष : माखनलाल चतुर्वेदी ने पत्रकारिता के ज़रिये जगाई थी स्वतंत्रता की अलख

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जन्मदिन विशेष : माखनलाल चतुर्वेदी ने पत्रकारिता के ज़रिये जगाई थी स्वतंत्रता की अलख

पंडित माखनलाल चतुर्वेदी उन विरले स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी हैं, जिन्होंने अपनी संपूर्ण प्रतिभा को राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया। उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता, दोनों को स्वतंत्रता आंदोलन में हथियार बनाया। हिंदी पत्रकारिता का स्तंभ कहे जाने वाले पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल, 1889 को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के बाबई गांव में हुआ। पिता का नाम नंदलाल चतुर्वेदी था, जो गाँव की प्राथमिल पाठशाला में अध्यापक थे। प्राथमिक शिक्षा के बाद घर पर ही उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और गुजराती आदि भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया। 30 जनवरी, 1968 में माखनलाल चतुर्वेदी का निधन हो गया। उन्होंने 80 वर्ष की आयु में इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

‘कर्मवीर’ और ‘प्रताप’ के संपादन में विशेष योगदान

कर्मवीर और माखनलाल एक-दूसरे के पर्याय बन गए थे।  माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता का शीर्ष ‘कर्मवीर’ के संपादन में ही प्रकट होता है। स्वतंत्रता के प्रति एक वातावरण बनाने के लिए पंडित विष्णुदत्त शुक्ल और पंडित माधवराव सप्रे की प्रेरणा से जबलपुर से 17 जनवरी, 1920 को साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। संपादन का दायित्व सौंपने का प्रश्न जब उपस्थित हुआ तो पंडित माखनलाल चतुर्वेदी का नाम सामने आया।


‘प्रभा’ के सफलतम संपादन से माखनलाल जी ने सबका ध्यान अपनी ओर पहले ही खींच लिया था। परिणामस्वरूप सर्वसम्मति से माखनलाल जी को कर्मवीर के संपादन की महती जिम्मेदारी सौंप दी गई। असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण माखनलाल जी को जेल जाना पड़ा और 1922 में कर्मवीर का प्रकाशन बंद हो गया। बाद में, माखनलाल जी ने 4 अप्रैल, 1925 से कर्मवीर का पुन: प्रकाशन खण्डवा से प्रारंभ किया। 11 जुलाई, 1959 का कर्मवीर का अंक दादा द्वारा संपादित अंतिम अंक था।

इसके बाद खण्डवा से प्रकाशित पत्रिका ‘प्रभा’ में वह सह-संपादक की भूमिका में आ गए। एक नई पत्रिका को पाठकों के बीच स्थापित करना आसान कार्य नहीं होता। चूँकि माखनलाल चतुर्वेदी जैसी अद्वितीय प्रतिभा प्रभा के संपादन में शामिल थी, इसलिए पत्रिका ने दो-तीन अंक के बाद ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। उस समय की सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ के प्रभाव की छाया में ‘प्रभा’ ने अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया।

प्रभा के संपादन में दादा माखनलाल का मन इतना अधिक रमने लगा कि उन्होंने शासकीय सेवा (अध्यापन) से त्याग-पत्र दे दिया और पत्रकारिता को पूर्णकालिक दायित्व के तौर पर स्वीकार कर लिया। उस समय वे खण्डवा की बंबई बाजार पाठशाला में 13 रुपए मासिक वेतन पर अध्यापक थे। ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लगातार लिखने और स्वतंत्रता की चेतना जगाने के प्रयासों के कारण अंग्रेज शासकों ने प्रभा का प्रकाशन बंद करा दिया। कानपुर से गणेश शंकर विद्यार्थी भी एक ओजस्वी समाचार-पत्र ‘प्रताप’ का संपादन-प्रकाशन करते थे। माखनलाल जी उनसे अत्यधिक प्रभावित थे। जब गणेश शंकर विद्यार्थी को ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार किया, तब माखनलाल जी ने आगे बढ़ कर ‘प्रताप’ के संपादन की जिम्मेदारी संभाली।


माखनलाल चतुर्वेदी के प्रमुख प्रकाशनों की बात करें तो कृष्णार्जुन युद्ध, साहित्य के देवता, समय के पांव, अमीर इरादे, गरीब इरादे, हिमकिरीटिनी, हिम तरंगिनी, माता, युग चरण, समर्पण, मरण ज्वार, वेणु लो गूंजे धरा,बीजुरी काजल आँज रही।

लेख प्रतियोगिता से पत्रकारिता का सफर

वैसे तो माखनलाल का मुख्य क्षेत्र साहित्य ही रहा, लेकिन कम ही लोगों को पता होगा कि एक लेख प्रतियोगिता उनको पत्रकारिता में खींच कर ले आई थी। मध्यप्रदेश के महान हिंदी प्रेमी स्वतंत्रता सेनानी पंडित माधवराव सप्रे समाचार पत्र ‘हिंदी केसरी’ का प्रकाशन कर रहे थे। हिंदी केसरी ने ‘राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार’ विषय पर लेख प्रतियोगिता आयोजित की। इस लेख प्रतियोगिता में माखनलाल जी ने हिस्सा लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। आलेख इतना प्रभावी और सधा हुआ था कि पंडित माधवराव सप्रे माखनलाल जी से मिलने के लिए खण्डवा पहुंच गए। इस मुलाकात ने ही पंडित माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता की नींव डाली। सप्रे जी ने माखनलाल जी को लिखते रहने के लिए प्रेरित किया।

गो-संरक्षण और कर्मवीर

आज की पत्रकारिता के परिपेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि आज गो-संरक्षण को सांप्रदायिक मुद्दा मान लिया गया है। गो-हत्या को हिंदू-मुस्लिम रंग देने की कोशिश की जाने लगी है। लेकिन गो-संरक्षण शुद्धतौर पर भारतीयता का मूल है। महान संपादक पंडित माखनलाल चतुर्वेदी ने गोकशी के विरोध में अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी पत्रकारिता के माध्यम से देशव्यापी आंदोलन खड़ा कर दिया था। गोकशी का प्रकरण जब उनके सामने आया, तब उनके मन में द्वंद्व कतई नहीं था। उनकी दृष्टि स्पष्ट थी- भारत के लिए गो-संरक्षण आवश्यक है। कर्मवीर के माध्यम से उन्होंने खुलकर अंग्रेजों के विरुद्ध गो-संरक्षण की लड़ाई लड़ी और अंत में विजय सुनिश्चित की। आज की पत्रकारिता इतिहास के पन्ने पलट कर दादा माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रकारिता से सबक ले सकती है।

पत्रकारिता के माध्यम से स्वतंत्रता की अलख जगाई

अपनी बात सामान्य जन तक पहुँचाने के लिए समाचार-पत्र को प्रभावी माध्यम के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी ने देखा। किंतु, उस समय उनके लिए समाचार-पत्र प्रकाशित करना कठिन काम था। इसलिए उन्होंने अपने शब्दों को लिखने और रचने की प्रेरणा देने के लिए एक वार्षिक हस्तलिखित पत्रिका ‘भारतीय-विद्यार्थी’ निकालना शुरू की। इस पत्रिका लिखने के लिए वह विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करते थे। पत्रकारिता के माध्यम से युवाओं में स्वतंत्रता की अलख जगाने के लिए यह उनका पहला प्रयास था।

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