एक तरफ गांधी की पूजा और दूसरी तरफ सावरकर को भारत रत्न… ‘हिपोक्रेसी’ की भी सीमा होती है

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एक तरफ गांधी की पूजा और दूसरी तरफ सावरकर को भारत रत्न...'हिपोक्रेसी' की भी सीमा होती है

2 अक्टूबर को भारत समेत पूरे विश्व में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं वर्षगांठ मनाई गई। बीजेपी ने गांधी जयंती के उपलक्ष्य में अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं को देशभर में गांधी संकल्प यात्रा निकालने के निर्देश दिए। अभी ये गांधी संकल्प यात्रा पूरी भी नहीं हुई कि महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव करीब आ गए। इस चुनाव को देखते हुए बीजेपी को विनायक दामोदर सावरकर की याद आ गई। इतनी ज़ोर से कि पार्टी ने सावरकर को भारत रत्न दिलवाने का संकल्प ले लिया। मंगलवार को बीजेपी द्वारा महाराष्ट्र के लिए जारी संकल्प पत्र में ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के साथ वीर सावरकर को भी भारत रत्न दिलवाने का वादा किया गया।

आप मानें न मानें लेकिन विनायक दामोदर सावरकर को आधुनिक भारत के इतिहास की सर्वाधिक विवादित शख्सियतों में से एक माना जाता है। सावरकर को लेकर अलग-अलग राजनीतिक दलों या विचारधारा के लोगों और इतिहासकारों के अपने-अपने मत, तर्क और दावे हैं। सावरकर को ‘वीर’ मानने वाली जमात उन्हें सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी के तौर पर ही नहीं देखती है, बल्कि ‘हिंदुत्व’ और ‘राष्ट्रवाद’ ब्रांड की राजनीति के सूत्रधार की तरह देखती है। वही ‘हिंदुत्व’ और ‘राष्ट्रवाद’ ब्रांड की राजनीति, जिसकी संजीवनी पाकर बीजेपी आज सत्ता के शिखर तक पहुंची है।


सावरकर के आलोचकों को अंग्रेजों से मांगी गई माफ़ी के साथ-साथ उनकी राजनीति खटकती है। उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष राजनीति के पक्षधर लोगों को सावरकर की विद्वेषपूर्ण और सांप्रदायिक राजनीति हजम नहीं होती है। इस आलेख के जरिये मैं ये टटोलने की कोशिश करने जा रहा हूँ कि बीजेपी आखिर क्यों सावरकर को भारत रत्न देने की बात कह रही है।

क्या सचमुच ‘वीर’ थे सावरकर?

28 मई, 1883 को एक मराठी ब्राह्मण परिवार में जन्मे विनायक दामोदर सावरकर बेशक एक स्वतंत्रता सेनानी रहे थे। उन्होंने 1857 के सैन्य विद्रोह को पहला स्वतंत्रता संग्राम करार देते हुए इस पर एक किताब ‘द इंडियन वॉर को इंडिपेंडेंस’ लिखी, जो साल 1909 में छपी थी। लेकिन सावरकर का क्रांतिकारी करियर काफी छोटा रहा। साल 1911 में उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते अंग्रेजों ने उन्हें कालापानी की सजा सुनाकर अंडमान के सेलुलर जेल में डाल दिया।

इतिहासकार आरसी मजूमदार की किताब ‘पीनल सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स’ के मुताबिक, सजा शुरू होने के चंद महीने बाद ही सावरकर का हौसला टूट गया और वो अपनी रिहाई के लिए ब्रिटिश हुकूमत को चिट्ठी लिखने लगे। सावरकर ने 1911, 1913 और 1921 में तीन बार अपनी रिहाई की अपील की। सावरकर ने ढाई पन्ने की चिट्ठी में यहाँ तक लिखा कि उन्हें रिहा किया गया तो वह भारत की आजादी की लड़ाई छोड़ देंगे और सदैव अंग्रेजी सरकार के वफ़ादार बनकर रहेंगे। इसी शर्त पर सावरकर रिहा हुए और जेल से छूटने के बाद ‘हिंदू राष्ट्र’ का एजेंडा लेकर मैदान में आ गए।


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देखा जाए तो बाद के वर्षों में सावरकर ने अंग्रजों से कभी वादाखिलाफी नहीं की और 1930 के सविनय अवज्ञा आंदोलन और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से न सिर्फ किनारा किया, बल्कि अपने समर्थकों और अनुयायियों को इनमें हिस्सा लेने मना किया। तो कुल मिलाकर सावरकर को ‘वीर’ मानने का एक पैमाना हो सकता है – उनका दस साल जेल में गुजारना। निश्चित तौर पर देश के लिए दस साल जेल में रहना बड़ी बहादुरी की बात है। लेकिन सावरकर ने तो शुरुआत में ही अपने क्रांतिकारी विचारों की तिलांजलि दे दी थी। मन ही मन स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने से ‘तौबा’ कर लिया था। वो तो अंग्रजों का दिल पसीजने में दस बरस बीत गया।

सावरकर के बदले भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को क्यों न मिले भारत रत्न

फिर भी, यदि सावरकर को दस साल के कारावास के आधार पर बीजेपी  भारत रत्न दिलाना चाहती है तो इसमें भी उनका नंबर काफी पीछे आता है। इस हिसाब से पहले भगत सिंह को भारत रत्न क्यों न मिले, जो जेल से रिहा होने के रास्ते ढूंढ़ने की बजाय साथी कैदियों को अच्छा खाना दिलाने और उनसे अच्छा व्यवहार किये जाने के लिए लड़े और हँसते-हँसते फांसी के फंदे पर झूल गए।

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सावरकर से पहले बटुकेश्वर दत्त को क्यों न भारत रत्न दिया जाए जो भगत सिंह के साथ गिरफ्तार हुए, कई साल लाहौर सेंट्रल जेल और फिर उसी अंडमान के सेलुलर जेल में गुजारा। भगत सिंह की फांसी के कुछ साल बाद जब दत्त रिहा हुए तो टीबी जैसी भयंकर बीमारी से संक्रमित होने के बावजूद भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया और फिर गिरफ्तार होकर देश के आज़ाद होने तक कालापानी की सजा काटी। खैर, बीजेपी चाहे तो अभी इतना कह सकती है कि पंजाब और पश्चिम बंगाल के चुनावी संकल्प पत्रों में वह इन क्रांतिकारियों के लिए भारत रत्न की मांग करेगी।

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बहरहाल, सावरकर के विवादित इतिहास का दायरा यहीं खत्म नहीं होता। सावरकर 1937 से लेकर 1942 तक हिंदू महासभा अध्यक्ष भी रहे थे। वही हिंदू महासभा जो नाथूराम गोडसे जैसे ‘देशभक्त’ तैयार करने की फैक्ट्री थी। अगर बीजेपी ‘गांधी जी की आत्महत्या’ वाली थ्योरी में यकीन नहीं करती है तो वह कैसे सावरकर को भारत रत्न देने की वकालत कर सकती है। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में लच्छेदार कॉलम लिखकर गाँधी को एक ऐसा महापुरुष बताते हैं जिसने दुनिया के तमाम बड़े राजनेताओं को प्रेरित किया। वह गोडसे का गुणगान करने वाले नेताओं को मन से माफ़ नहीं कर पाते हैं। तो दूसरी तरफ महाराष्ट्र में चुनावी रैली में गोडसे जैसे ‘देशभक्त’ तैयार करने वाले और गांधी की हत्या के आरोप में तकनीकी आधार पर बच निकलने वाले वीर सावरकर की महिमा का बखान कर आते हैं।

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भाजपा की ‘गांधी संकल्प यात्रा’ को हरी झंडी दिखाने वाले अमित शाह एनआरसी के जरिये धर्म विशेष के लोगों के मन में भय पैदा कर सावरकर के ‘हिंदू राष्ट्र’ की परिकल्पना को साकार करते नज़र आते हैं। जब वह मानवाधिकार को पाश्चात्य जगत का आडंबर बताकर उसे नए सिरे से परिभाषित करने की बात कहते हैं तो लगता है वह सावरकर की तरह ही हिटलर के नाजी दर्शन और मुसोलिनी के फासीवाद से प्रभावित हैं। इन सभी पहलुओं पर गौर करें तो साफ झलकता है कि गांधी जी बीजेपी के लिए सिर्फ ‘दिखाने के दांत’ हैं, ‘खाने वाले दांत’ सावरकर ही हैं।

मेरे विचार से आरएसएस की योजना है कि अपनी संकीर्ण सोच और विभाजनकारी मानसिकता के चलते इतिहास में हाशिये पर धकेले गए हिंदुत्व के आरंभिक झंडाबरदारों को भारत रत्न देकर उन पर जबरदस्ती महानता लाद दी जाए। इससे आने वाली पीढ़ियां सावरकर की देशभक्ति पर सवाल नहीं खड़ी कर पाएंगी। सावरकर की ब्रिटानी हुकूमत की सरपरस्ती को लोग ऐसे ही भुला देंगे जैसे संघ मुख्यालय पर 52 साल तक राष्ट्रध्वज नहीं फहराए जाने की बात भूल गए। अगर ऐसा है तो बीजेपी को गांधी को पूजने का यह ढोंग फौरन बंद कर देना चाहिए और सावरकर को खुलकर अपनाना चाहिए।

(ये लेखक के निजी विचार हैं, इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति न्यूज्ड हिंदी जवाबदेह नहीं है।)

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