‘लट्ठमार होली’ से कैसे अलग है ‘छड़ीमार होली’? जानें क्या है कहानी

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'लट्ठमार होली' से कैसे अलग है 'छड़ीमार होली'? जानें क्या है कहानी

फाल्गुन के महीने में रंगों के त्योहार होली का सबको बेसब्री से इंतजार रहता है। बात मथुरा और वृंदावन की होली की हो तो माहौल पूरा कृष्णमय हो जाता है। फाल्गुन के शुक्ल पक्ष के द्वादशी को गोकुल में प्रसिद्ध छड़ीमार होली खेली जाती है। यह लट्ठ मार होली से अलग होती है। यहां गोपियों के हाथ में लट्ठ नहीं, बल्कि छड़ी होती है और होली खेलने आए कान्हाओं पर गोपियां छड़ी बरसाती हैं। यहां लाठी की जगह छड़ी से होली खेली जाती है। मान्यता है कि बालकृष्ण को लाठी से कहीं चोट ना लग जाए, इसलिए यहां लाठी की जगह छड़ी से होली खेलने की परंपरा है।

होली के रंग में डूबा आस्था और भक्ति का नज़ारा

होली कई तरीकों से मनाई जाती है। गोकुल में होली के रंग में डूबा आस्था और भक्ति का नज़ारा देखते ही बनता है। यहां कृष्ण भक्ति के अनोखे रंग देखने को मिलते हैं। गोपियों की रंगत देखते ही बनती है। अबीर गुलाल से पहले छड़ीमार होली में मगन गांव की गोपियां सज-धज कर हाथों में छड़ियां लेकर पूरे गाजे बाजे के साथ निकलती हैं।


छड़ीमार होली  गोकुल की अनोखी विरासत, परंपरा

छड़ीमार होली का उत्सव गोकुल में एक परंपरा बन चुका है। जो सदियों से चला आ रहा है। ये होली खुद में अनोखी विरासत को समेटे हुए है। आज भी गोकुल की छड़ीमार होली में श्रीकृष्ण के बालरूप की झलक मिलाती है। गोकुल कान्हा की नगरी है। बालगोपाल ने यहां अपना बचपन गुजरा है। बचपन में कान्हा बड़े चंचल हुआ करते थे। उन्हें गोपियों को परेशान करने में बहुत आनंद मिलता था। इसलिए गोकुल में उनके बालस्वरूप को ज़्यादा महत्व दिया जाता है। गोकुल के छैल छबीलों को गोपियां खूब छका देती हैं। कान्हा की पालकी और पीछे सजी-धजी गोपियां हाथों में छड़ी लेकर चलती हैं।

देश-विदेश से उत्सव देखने आते हैं श्रद्धालु

माना जाता है की  कृष्ण-बलराम ने यहां ग्वालों और गोपियों के साथ होली खेली थी। बाल गोपाल की अनोखी छवि को याद करते हुए आज भी यहां के लोग परंपरा को निभाते हैं। कान्हा को स्मृतियों में संजोए ये लोग आज भी पूरे उत्साह से छड़ीमार होली खेलते है। होली खेलते हुए गोपिायां ये भी ख्याल रखती हैं कि कहीं कृष्ण लला को चोट न लग जाए। गोकुल में होली द्वादशी से शुरू होकर धुलेंडी तक चलती है। कहा जाता है कि इस दौरान कृष्ण भगवान सिर्फ़ एक दिन यानी द्वादशी को बाहर निकलकर होली खेला करते थे। गोकुल में बाक़ी के दिन होली मंदिर में ही खेली जाती है ढोल नगाड़ों की थाप पर सब थिरकते हुए नंद नंदन को लेकर चलते हैं। कान्हा ने जहां अपने बचपन की लीलाएं की उसी गांव में इस दिव्य होली में रंगने के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु यहां आते हैं। रंगों की बौछार से श्रद्धालुओं का रोम-रोम गोकुल की होली के रंग में रंग जाता है।

भगवान की झांकी दर्शन का अद्भुत नजारा

छड़ियों की होली के बाद भगवान की झांकी के दर्शन का अद्भुत नजारा होता है। कन्हैया की जय-जयकार से गोकुल की गलियां गूंज उठती हैं। देश के कोने-कोने से श्रद्धालु होली खेलने ब्रजभूमि पहुंचते हैं। छड़ीमार होली गोकुल के मुरलीधर घाट से शुरू होती है। माना जाता है कि इसी घाट पर कान्हा ने सबसे पहले अपने अधरों पर मुरली रखी थी। पहले यहां होरंगा खेला जाता है यानि गोपियां कान्हा बने होरियारों पर प्यार से छड़ियां बरसाती हैं। इसके बाद रंग-गुलाल से होली खेलने का दौर शुरू होता है। छड़ीमार होली के हुड़दंग के बीच भजन लोकगीत भी गाया जाता है। जो यहां एक बार आ जाता है वो हर साल यहीं खींचे चले आते हैं। ब्रज की होली में एक बार रंग जाने वाले पर कभी कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता है। यहां के प्यार भरे गुलाल में श्री कृष्ण का आशीर्वाद समाया होता है।


भारत में होली की धूम अलग ही नज़र आती है। आस्था और रंगों के इस अनोखे मिलन के साक्षी बनने के लिए देश और विदेश से श्रद्धालु हर साल यहां पहुंचते हैं। ब्रज के इस रंगोत्सव में रमने का मौका कोई गंवाना नहीं चाहता है। सब खुशियों के रंगों का आनंद जमकर उठाना चाहते हैं।

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