पुण्यतिथि विशेष: सिर्फ 11 साल की उम्र में शायरी लिखने लगे थे कैफ़ी आज़मी, पढ़ें उनकी कुछ बेहतरीन रचनाएं

  • Follow Newsd Hindi On  
पुण्यतिथि विशेष: सिर्फ 11 साल की उम्र में शायरी लिखने लगे थे कैफ़ी आज़मी, पढ़ें उनकी कुछ बेहतरीन रचनाएं

कैफ़ी आज़मी भारत के उन उम्दा शायरों में से एक हैं, जिन्होंने अपने कलम और लफ़्ज़ों से शायरी को एक अलग मुकाम पर पहुंचाया। मुशायरों में शायरी पढ़ने के साथ उन्होंने अपने लिखे गीतों से सिनेमा की दुनिया में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई। उनकी बेटी शाबाना आज़मी भी फिल्मी दुनिया का एक बड़ा नाम हैं।

आज भारत के महान शायर कैफ़ी आज़मी की पुण्यतिथि है। उनका निधन आज ही के दिन यानी 10 मई को 2002 में हुआ था।


कैफ़ी आज़मी का जन्म 14 जनवरी 1919 को उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के एक छोटे से गांव मिजवां में हुआ था। उनका असली नाम अख्तर हुसैन रिज़वी था। आज़मगढ़ से होने के कारण इन्हें ‘आज़मी’ नाम मिला। उन्हें बचपन से ही शायरी का शौक था। आज़मी ने सिर्फ 11 साल की उम्र में ही मुशायरों में शायरी पढ़ना शुरू कर दिया था। 1944 में सिर्फ 26 साल की उम्र में पहला संग्रह ‘झनकार’ प्रकाशित हुआ। उन्होंने फिल्मों में गीत लिखने की शुरुआत 1951 में फिल्म ‘बुजदिल’ के गीत ‘रोते-रोते बदल गई रात’ से की। इसके बाद वह फिल्मी दुनिया का एक बड़ा नाम बन गए।

उन्होंने गानों के अलावा फिल्मों की कहानी, संवाद और स्क्रिप्ट भी लिखी। उनकी मशहूर फिल्मों में ‘काग़ज़ के फूल’, ‘गर्म हवा’, ‘हक़ीक़त’, ‘हीर राँझा’, जैसी फिल्में शामिल हैं। आज़मी ने 1962 में ‘कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियों’ गीत लिखा था। पर जब 1964 में भारत-चीन युद्ध पर बनी फिल्म में मोहम्मद रफी ने इसे गाया तो यह हिंदुस्तानियों की जुबान पर चढ़ गया। कैफ़ी को उनके महान योगदान के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित भी किया गया।

कैफ़ी की लिखीं ग़ज़ले और नज़्में बेहद पसंद की गई। आप भी पढ़िए उनकी कुछ बेहतरीन रचनाएं।


1. ये जमीं तब भी निगल लेने को आमादा थी,
पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हमने,
इन मकानों को ख़बर है न, मकीनों को ख़बर
उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हमने।

2. राह में टूट गये पांव तो मालूम हुआ
जुज मेरे और मेरा राहनुमा कोई नहीं
एक के बाद खुदा एक चला आता था
कह दिया अक्ल ने तंग आके खुदा कोई नहीं।

3. उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे
तू कि बेजान खिलौनों से बहल जाती है
तपती सांसों की हरारत से पिघल जाती है
पांव जिस राह में रखती है फिसल जाती है
बनके सीमाब हर इक ज़र्फ में ढल जाती है
जीस्त के आहनी सांचे में भी ढलना है तुझे
उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे।

4. आँधियाँ तोड़ लिया करतीं थीं शामों की लौएँ,
जड़ दिए इस लिए बिजली के सितारे हमने,
बन गया कस्र तो पहरे पे कोई बैठ गया,
सो रहे ख़ाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिए।

5. ख़ारो-ख़स तो उठें, रास्ता तो चले
मैं अगर थक गया, काफ़िला तो चले
चाँद-सूरज बुजुर्गों के नक़्शे-क़दम
ख़ैर बुझने दो इनको, हवा तो चले
हाकिमे-शहर, ये भी कोई शहर है
मस्जिदें बन्द हैं, मयकदा तो चले।

कैफ़ी आज़मी की बेटी शबाना आज़मी ने अपने पिता की याद में उनकी एक वेबसाइट www.azmikaifi.com भी शुरू की थी, जिसमें कैफ़ी आज़मी की तमाम रचनाएं हैं। साथ ही शबाना ने अपने अब्बा (पिता) और अपने रिश्ते के बारे में बताया है।

(आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर फ़ॉलो और यूट्यूब पर सब्सक्राइब भी कर सकते हैं.)