स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ डट कर खड़े रहे सुखदेव, सिर्फ 24 साल में देश के लिए हो गए थे शहीद

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स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के खिलाफ डट कर खड़े रहे सुखदेव, सिर्फ 24 साल में देश के लिए हो गए थे शहीद

जब भी भारत के वीर पुत्र और स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकरियों का ज़िक्र होता है, तो उसमें सुखदेव थापर का नाम जरूर आता है। भारत की आजादी के लिए शहीद हुए सुखदेव थापर एक सच्चे देशभक्त थे। वह शहीद-ए-आजम भगत सिंह के मित्र थे, जिन्हें भगत सिंह और शिवराम राजगुरु के साथ फांसी दे दी गई थी।

भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक क्रांतिकारी के तौर पर उभरे सुखदेव थापर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ डट कर खड़े रहे। आजादी के लिए उनकी जिद्द और अंग्रेज़ों के खिलाफ उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें फांसी दे दी गई। लेकिन भारत की आजादी के लिए महज 24 साल की उम्र में शहीद हुए सुखदेव सदा के लिए अमर हो गए। आज भारत के इस वीर पुत्र की जयंती है।


सुखदेव यादव का जन्म 15 मई 1907 को पंजाब के लुधियाना शहर में हुआ था। सुखदेव में बचपन से ही कुछ कर गुजरने का जज्बा था। छोटी उम्र में पिता के गुजर जाने के बाद सुखदेव का लालन – पालन उनके ताऊ ने किया जो आर्य समाज से प्रभावित थे। सुखदेव भी इससे प्रभावित होकर अछूत कहे जाने वाले बच्चों को पढ़ाने लगे थे। 12 वर्ष की उम्र में जलियांवाला बाग हत्याकांड ने सुखदेव के मन पर एक गहरा असर छोड़ा था।

उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा लायलपुर के ‘सनातन धर्म हाईस्कूल’ से की। इसके बाद उन्होंने लाहौर के नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया। सुखदेव की मुलाकात भगत सिंह के साथ इसी कॉलेज में हुई थी। दोनों में स्वतंत्रता की भावना तो थी ही, इसके बाद उनके इतिहास के अध्यापक ‘जयचंद्र विद्यालंकार’ ने उन दोनों को क्रांति के लिए प्रेरित किया।

1926 में सुखदेव लाहौर की ‘नौजवान भारत सभा’ के मुख्य संयोजक बने इस सभा में भगत सिंह, यशपाल, भगवती चरण औक जयचंद्र विद्यालंकार जैसे क्रांतिकारी शामिल थे। इस सभा का उद्देश्य स्वदेशी वस्तुओं, देश की एकता, सादा जीवन, शारीरिक व्यायाम और भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता पर विचार आदि करना था।


1928 में दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला में उत्तर भारत के प्रमुख क्रांतिकारियों की एक गुप्त बैठक हुई। यह बैठक सुखदेव के जीवन का सबसे बड़ा मोड़ साबित हुई थी। इसमें एक केंद्रीय समिति ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ का गठन हुआ था, जिसमें सुखदेव को पंजाब के संगठन का उत्तरदायित्व दिया गया। इस दल के राजनीतिक नेता भगत सिंह थे। वहीँ सुखदेव को संगठनकर्ता बनाया गया। 1928 की उस घटना ने इन क्रांतिकारियों के जीवन को पलट दिया, जब उन्होंने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए अंग्रेजी हुकूमत के कारिन्दे पुलिस उपाधीक्षक जेपी सांडर्स को मौत के घाट उतार दिया था। इस घटना ने ब्रिटिश साम्राज्य को हिलाकर रख दिया था और पूरे देश में क्रांतिकारियों की जय जयकार हुई थी।

सेंट्रल एसेंबली के सभागार में बम और पर्चे फेंकने जैसी योजनाओं को अंजाम दिया गया। कहा जाता है कि सुखदेव इस युवा क्रांतिकारी आंदोलन की नींव थे। सेंट्रल एसेंबली में बन फेंकने के बाद पहले भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पकड़े गए, जिसके बाद लाहौर में एक बम बनाने की फैक्ट्री से सुखदेव और अन्य क्रांतिकारियों भी गिरफ्तार किए गए।

कहा जाता है कि सुखदेव को गांधी जी की अहिंसक नीति पर भरोसा नहीं रखते थे। उन्होंने जेल से गांधी जी को पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षों में कोई अधिक महत्व नहीं होता और न ही हो सकता है।’ पत्र में सुखदेव ने गांधी जी से यह भी पूछा कि ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ आंदोलन वापिस लेने के बाद आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ?

इसके बाद वह दिन आया जिसनें सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु को इतिहास में सदा के लिए अमर कर दिया। लाहौर षड्यंत्र’ के नाम से मशहूर सांडर्स की हत्या के मामले में तीनों को मौत की सजा सुनाई गई थी। इसके बाद 3 मार्च 1931 को भारत के ये तीनों क्रांतिकारी हंसते-हंसते शहीद हो गए। लेकिन इन तीनों के इस बलिदान ने पुरे देश में आजादी की जंग को कई ज्यादा तेज कर दिया।

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