भारत की आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी के अलावा जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, शहीद-ए-आजम भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाषचंद्र बोस और अन्य कई क्रांतिकारी नेताओं का अहम योगदान रहा। लेकिन, राष्ट्रपिता के साथ एक ऐसे व्य़क्ति भी थे जिन्हें ‘सीमांत गांधी’ या ‘फ्रंटियर गांधी’ की उपाधि दी गई थी। इनका नाम है ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान। इन्हें “बच्चा खान” और “बादशाह खान” के नाम से भी जाना जाता है। गफ्फार खान पश्तून नेता थे और आजादी के मतवालों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसक जंग लड़ी।
ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान (Khan Abdul Ghaffar Khan) का जन्म 6 फ़रवरी, 1890 को पेशावर, तत्कालीन ब्रिटिश भारत (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। साल 1919 में अंग्रेजों द्वारा लगाये गये रॉलेट एक्ट का विरोध करने वाले आंदोलन के दौरान सीमान्त गांधी की पहली मुलाकात महात्मा गांधी से हुई।
इसके बाद ग़फ़्फ़ार ख़ान ने अपना पूरा जीवन आजादी की लड़ाई को समर्पित कर दिया।
बच्चा खान ने अंग्रेजों के विरुद्ध लगभग सारे विद्रोहों को असफल होते देखा था। इसलिए उन्हें लगा कि सामाजिक चेतना के द्वारा ही पश्तूनों में परिवर्तन लाया जा सकता है। इसके बाद उन्होंने एक धार्मिक और राजनीतिक नेता के रूप में पहचान बनाई। बादशाह ख़ान ने अहिंसा को मानवता की सेवा के रूप में देखा था। अपने संगठन का नाम ‘ख़ुदाई-ख़िदमतगार’ रखने के पीछे भी उनकी भावना यही थी। वह ब्रिटिश सरकार से आजादी के लिए संघर्षरत ‘स्वतंत्र पख्तूनिस्तान’ आंदोलन के प्रणेता थे। गांधी जब सीमाप्रांत के अपने दौरे से लौटकर आए, तो पठानों के बीच अहिंसा का प्रसार करने में ख़ान साहब की सफलता देखकर उनका मन बड़ा गदगद था।
ख़ुदाई-ख़िदमतगार, गांधी जी के अहिंसात्मक आंदोलन से प्रेरित था। इस आंदोलन की सफलता से अंग्रेज शासक तिलमिला उठे और उन्होंने बच्चा खान और उनके समर्थकों पर जमकर जुल्म ढाए। गफ्फार खान और महात्मा गाँधी के बीच एक आध्यात्मिक स्तर की मित्रता थी। दोनों को एक दूसरे के प्रति अपार स्नेह और सम्मान था। कई मौकों पर जब कांग्रेस गांधीजी के विचारों से सहमत नहीं होती, तब गफ्फार खान गाँधी के साथ खड़े दिखते। वह कई सालों तक कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य रहे, लेकिन उन्होंने अध्यक्ष बनने से इनकार कर दिया। 20 जनवरी 1988 को बच्चा खान का निधन हुआ। उनकी अंतिम इच्छानुसार उन्हें अफगानिस्तान के जलालाबाद में दफनाया गया था।