समाज के बीच की खाई को पाटेगी दिल्ली सरकार की जय भीम स्कॉलरशिप स्कीम

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समाज के बीच की खाई को पाटेगी दिल्ली सरकार की जय भीम स्कॉलरशिप स्कीम

दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में किये गए कामों की लगातार चर्चा और समीक्षा होती रहती है। आम आदमी पार्टी की सरकार ने इन दो क्षेत्रों में निश्चय ही कुछ बेजोड़ काम किये हैं, जिनका देश के दूसरे राज्यों ने भी अध्ययन और अनुकरण करना शुरू किया है। बेशक स्वस्थ और जनोपयोगी राजनीति के लिहाज से ये अच्छे संकेत हैं। शिक्षा के क्षेत्र में दिल्ली सरकार की तमाम योजनाओं के बीच ‘जय भीम मुख्यमंत्री प्रतिभा विकास योजना’ ने हाल में सबसे ज्यादा सुर्खियां बटोरी है। कारण यह कि इस छात्रवृत्ति योजना की वजह से दिल्ली के गरीब और वंचित तबके से आने वाले कुछ बच्चों ने जेईई (JEE) और नीट (NEET) जैसे शीर्ष प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता का परचम लहराया है।

जिन लोगों को अब तक पता नहीं है, उन्हें बता दूँ कि दिल्ली सरकार ने पिछले साल जय भीम स्कॉलरशिप योजना शुरू की थी। इसके तहत IIT, UPSC, NEET, SSC जैसे प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे एससी/एसटी समुदाय के बच्चों को कोचिंग के लिए 40,000 रुपये की स्कॉलरशिप दी जाती थी। जिसे इस साल बढ़ाकर 1 लाख रुपया कर दिया गया है। इसके अलावा यह योजना अब सभी जाति और धर्म के उन छात्र-छात्राओं पर लागू होगी जिनके परिवार की वार्षिक आय 8 लाख रुपये से कम हो।


मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल इस स्कीम के तहत 107 छात्रों ने कोचिंग ली जिनमें से 35 को देश के प्रतिष्ठित कॉलेज में एडमिशन मिला है। इनमें से 13 छात्रों ने इंजीनियरिंग एंट्रेंस पास किया जबकि 22 ने नीट की परीक्षा में सफलता पाई। इन छात्रों को चार महीने का क्रैश कोर्स ज्वाइन कराया गया था। कोचिंग की फीस के अलावा सरकार ने इन छात्रों को हर महीने 2500 रुपये की मदद भी दी।

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मेरी नज़र में ये बड़ी क्रांतिकारी योजना है। साथ ही इसमें मेरे बचपन या यूं कहें कि स्कूल के दिनों के कुछ अनसुलझे सवालों के जवाब निहित हैं। उन सवालों का ज़िक्र करने से पहले स्पष्ट कर दूँ कि मैं एक सामान्य जाति वर्ग से ताल्लुक रखता हूँ। मेरी पृष्ठभूमि एक सामान्य किसान परिवार की रही है। बावजूद इसके मुझे ये स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं है कि मेरे पास प्राइवेट स्कूल या कोचिंग में पढ़ने के लिए समाज के निचले तबके से आने वाले बच्चों की अपेक्षा ज्यादा अवसर और संसाधन थे। अब बढ़ते हैं उन सवालों की तरफ जो मेरे जेहन में अक्सर उठा करते थे और इनका हल ढूंढ़ने को प्रेरित करते थे।

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दरअसल, दसवीं पास करते ही हवा के साथ बहता हुआ मैं, इंजीनियरिंग एंट्रेंस एग्जाम क्रैक करने की कवायद में जुट गया। एक आम बालक की तरह मेरे मन में भी आईआईटी और अन्य प्रवेश परीक्षाओं के प्रति तरह-तरह की आशंकाएं और सवाल घर करने लगे थे। कोचिंग के लड़कों के साथ बातचीत का एक कॉमन टॉपिक इन परीक्षाओं का ‘कट ऑफ’ हुआ करता था। और बात जब कट ऑफ की हो तो जेनेरल कैटेगरी और एससी-एसटी बच्चों के लिए अलग-अलग मापदंड होना सबको अखड़ जाता था। इसलिए आमतौर पर इस चर्चा का एकमुश्त निष्कर्ष यही निकलता था कि “जाति के आधार पर कट-ऑफ में मिलने वाली ये छूट गलत है और सामान्य वर्ग के बच्चों के लिए न्यायसंगत नहीं है। इसलिए इसको खत्म कर देना चाहिए।”


हालाँकि, मेरे मन में ये सवाल कौंधता रहता था कि आखिर निचले तबके के लोगों के लिए सरकार ने कम कट-ऑफ क्यों तय किया है? मैंने इस पर गंभीरता से सोचना शुरू किया तो पाया कि इन कोचिंगों में पढ़ने वाले करीब-करीब सभी बच्चे अच्छे और खाते-पीते परिवार से आते थे। इनमें कोई दलित या वंचित समाज का बच्चा नहीं था। शायद इसलिए कि उनके मां-बाप की माली हालत उन्हें शहर में रहकर कोचिंग संस्थानों में पढ़ाने की इजाज़त नहीं देती थी। राज्यों के सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षा की हालत किसी से छिपी नहीं है। तो ऐसे में सरकार अगर कट-ऑफ कम न रखे तो पिछड़ी जातियों के बच्चे लगातार पिछड़ते चले जाएंगे और जीवन में कभी भी आईआईटी और अन्य प्रतिष्ठित संस्थानों का मुंह नहीं देख पाएंगे।

अब मेरे मन में एक और सवाल पैदा हुआ कि ये तर्क तो ठीक है। लेकिन कट-ऑफ कम रखकर क्या हम उन्हें कम में संतुष्ट होने के लिए प्रेरित तो नहीं कर रहे? उनकी प्रतिभा को कुंद करके हम कहीं न कहीं उन बच्चों का भविष्य तो खराब नहीं कर रहे? क्योंकि अखबारों में ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती थीं कि कम कट-ऑफ के बावजूद कई बार सीटें खाली रह जाया करती थीं। ये भी कि बहुत सारे बच्चे आईआईटी में जाकर अच्छा नहीं कर पा रहे और चार साल के कोर्स को पूरा करने में पांच, छह या सात साल तक लगा देते थे।

इन सभी पहलुओं के बारे में सोच-सोचकर मुझे लगता था कि आखिर निदान क्या है? क्या सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से उपेक्षित बच्चों को मुख्यधारा में लाने के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं के कट-ऑफ कम करना ही एकमात्र विकल्प है? इसकी बजाय क्यों न सरकार उन्हें ऐसी सुविधा और शिक्षा मुहैया करवाए जिससे उनकी प्रतिभ निखरे और वे कॉमन कट-ऑफ या उससे कहीं ज्यादा नंबर ला सकें। इससे उनके मन में किसी तरह की हीन भावना भी नहीं आएगी। साथ ही वो उच्च संस्थानों में होने वाली पढ़ाई से भी आसानी से तारतम्य बिठा पाएंगे। इसके अलावा सामान्य वर्ग के बच्चों को भी ये एहसास नहीं होगा कि उनके साथ किसी तरह का पक्षपात या अन्याय हो रहा है।

मुझे खुशी है कि दिल्ली सरकार ने इस दिशा में कदम उठाते हुए जय भीम स्कॉलरशिप योजना शुरू की है। दिल्ली सरकार की इस पहल से निश्चित तौर पर वंचित, उपेक्षित और कमज़ोर पृष्ठभूमि के बच्चों के सपनों को पंख मिलेगा।  मुझे इस बात का संतोष रहेगा कि कम-से-कम हर बच्चे को समान अवसर मिलेगा, उनकी मेहनत और मेधा के साथ न्याय होगा। एक समतामूलक समाज के निर्माण की ओर हम कदम बढ़ा सकेंगे। लंबे समय में देखें तो अमीरी और गरीबी के बीच की बढ़ती खाई कम होगी। अब जरूरत है कि दूसरे राज्यों की सरकारें भी इस योजना को लागू करने पर विचार करें। साथ ही सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था दुरुस्त करने में मुस्तैदी से काम करें।


(ये लेखक के निजी विचार हैं, इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति न्यूज्ड हिंदी जवाबदेह नहीं है।)

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