‘जब दिल्ली की अदालतों पर ताले थे, तब भी अपनी अदालत में फैसले सुनाता रहा’ (आईएएनएस एक्सक्लूसिव)

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 नई दिल्ली, 2 नवंबर (आईएएनएस)| “भारत में ज्यादातर वकील मानते हैं कि बस वे ही कानून, जज और अदालत हैं।

 अधिकांश वकील सोचते हैं कि मानो कानून वकीलों से चलता है, न कि जज-अदालत और संविधान से। जहां तक बात दिल्ली की तीस हजारी अदालत में अक्सर होने वाले बे-वजह के बबालों की है, तो शनिवार की घटना के बारे में सुनकर 17 फरवरी, 1988 का लाठीचार्ज याद आ गया। इसी तीस हजारी अदालत में तत्कालीन दबंग आईपीएस किरण बेदी द्वारा बेकाबू वकीलों को ‘कंट्रोल’ करने के लिए लाठीचार्ज कराया गया था। उस बार भी वकीलों ने खुद को दमखम वाला साबित करने के लिए अदालतों में ताले डलवा दिए। मगर मेरी अदालत चलती रही और मैं फैसले सुनाता रहा।”


संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को फांसी की सजा मुकर्रर कर चुके दिल्ली हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस एस.एन. ढींगरा ने आईएएनएस से विशेष बातचीत में यह सनसनीखेज खुलासा किया। पूर्व न्यायाधीश, न्यायमूर्ति शिव नरायन ढींगरा शनिवार दोपहर दिल्ली के उत्तरी जिले में स्थित तीस हजारी अदालत परिसर में वकील और पुलिस के बीच हुई खूनी झड़प पर बात कर रहे थे।

17 फरवरी, 1988 को जब दिल्ली की तीस हजारी अदालत में तत्कालीन आईपीएस और उत्तरी दिल्ली जिले की तत्कालीन पुलिस उपायुक्त किरण बेदी ने वकीलों को काबू करने के लिए लाठीचार्ज करवाया था, उन दिनों एस.एन. ढींगरा तीस हजारी अदालत के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश थे।

एस.एन. ढींगरा ने आईएएनएस के साथ विशेष बातचीत में आगे कहा, “मेरे पास उन दिनों मेट्रोमोनियल अदालत थी। मेरी अदालत में उन दिनों फैसले ही सुनाए जा रहे थे। तभी एक दिन (17 फरवरी, 1988 जहां तक मुझे याद आ रहा है) पता चला कि उत्तरी जिले की पुलिस ने दिल्ली विश्वविद्यालय के महिला शौचालय में मौजूद एक वकील को गिरफ्तार कर लिया है। महिला शौचालय से वकील को पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने की बात वकीलों को हजम नहीं हुई। वे सब इकट्ठे होकर डीसीपी किरण बेदी के पास उनके दफ्तर जा पहुंचे। उन दिनों डीसीपी का ऑफिस तीस हजारी परिसर में ही स्थित था।”


17 फरवरी, 1988 के उस काले दिन को करीब 30 साल बाद याद करते हुए न्यायमूर्ति ढींगरा ने कहा, “डीसीपी ऑफिस में वकील और पुलिस के बीच बात इस कदर बढ़ी कि डीसीपी किरण बेदी को लाठीचार्ज करा देना पड़ा। मतलब वकीलों ने डीसीपी दफ्तर में कुछ न कुछ हालात इस हद तक पहुंचा दिए होंगे कि नौबत लाठीचार्ज तक की आ पहुंची। यूं ही भला कोई आईपीएस बे-वजह वकीलों के ऊपर लाठीचार्ज कराके बैठे-बिठाए आफत क्यों मोल लेना चाहेगा?”

किरण बेदी द्वारा लाठीचार्ज के विरोध में जब दिल्ली हाईकोर्ट सहित राज्य की तमाम अदालतों में ताले पड़ गए तो आप उन हालातों से कैसे निपटे? एस.एन. ढींगरा ने कहा, “मुझे क्या निपटना था। निपटना तो वकीलों और दिल्ली पुलिस को था। हां, बस वकील मुझसे भी चाहते यही थे कि मैं उनके ‘हौवे’ से डरकर बाकी तमाम अदालतों की तरह अपनी अदालत में भी ताला लटका दूं। जोकि न संभव था और न मेरे न्यायिक सेवा में रहते हुए कभी संभव हो सका।”

उन्होंने आगे कहा, “वकीलों की हड़ताल के चलते जब दिल्ली की सब अदालतें बंद थीं, तब भी मेरी अदालत (मेट्रोमोनियल कोर्ट) खुली रही। मैं अपनी अदालत में रोजाना बैठकर फैसले सुनाता रहा। मेरी अदालत में जब हड़ताली वकील पहुंचे तो मैंने उन्हें दो टूक बता-समझा दिया ‘हड़ताल वकीलों की है अदालतों की नहीं।’ और फिर कोई हड़ताली वकील मेरी कोर्ट की ओर नहीं लौटा।”

पूर्व न्यायाधीश ढींगरा ने आगे कहा, “किरण बेदी और उनके मातहत पुलिसकर्मियों से पिटे हड़ताली वकीलों की दिनो-दिन बढ़ती ऊल-जलूल हरकतों से परेशान दिल्ली हाईकोर्ट ने ही अंतत: ‘स्वत: संज्ञान’ ले लिया। हाईकोर्ट के 13-12 के अनुपात में बैठी जजों की दोनों बेंच ने अपना फैसला सुना दिया। बस खुद के फेवर में फैसला आते ही वकील ऐसे बेकाबू हुए, जो सबके सामने अब तक आ रहा है।”

दिल्ली की तीस हजारी अदालत में वकीलों और पुलिस के बीच शनिवार को फिर हुई खूनी झड़प से क्या समझा जाए? के जबाब में दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश ने कहा, “सब दादागिरी और चौधराहट का चक्कर है। वकीलों पर या फिर किसी अन्य पर भी गोली चलाने का शौक पुलिस को फिजूल में नहीं होता। सामने वाले की ओर से जब हालात बेकाबू और जान खतरे में महसूस हुई होगी, तभी पुलिस ने गोली चलाई होगी।”

(इस खबर को न्यूज्ड टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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