मध्य प्रदेश के बाघों के इलाके में एक अनूठा शैक्षणिक प्रयोग

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मुक्की (मध्य प्रदेश), 9 दिसम्बर (आईएएनएस)| छह साल की मासूम विनन्या उइके जब हर सुबह अपने स्कूल जाने के लिए उत्साह के साथ उठती है, तो वह न केवल वहां दुनिया की नई-नई चीजों के बारे में सीखती है बल्कि स्कूल में रखे आकर्षक खिलौनों के साथ भी खेलती है।

विनन्या और भारत के करोड़ों अन्य स्कूली बच्चों में जो अंतर है, वह यह है कि विनन्या आदिवासी बैगा जनजाति से ताल्लुक रखती है, जिसके लिए प्लेस्कूल एक अज्ञात सी अवधारणा है। और, बात की जाए स्कूलों में अंतर की तो यह स्कूल मध्य भारत के राज्य मध्य प्रदेश में स्थित एक प्रसिद्ध बाघ संरक्षित क्षेत्र के ठीक बीच में स्थित है और इसमें पढ़ने वाले छात्र यहां के मूल निवासियों व वन अधिकारियों के बच्चे हैं।


मुक्की जोन स्थित इस स्कूल का नाम कान्हा टाइगर रिजर्व के प्रसिद्ध शुभंकर के नाम ‘भूरसिंह द बारहसिंगा’ पर रखा गया, जिसमें पहली बार जनजातीय बच्चे तस्वीर वाली पुस्तकों, खिलौनों और यहां तक कि कंप्यूटर और प्रोजेक्टर से रूबरू हुए हैं।

इस स्कूल ने पड़ोस के दस गांवों के बच्चों को अपनी ओर आकर्षित किया, जिसमें ज्यादातर बैगा जनजाति से ताल्लुक रखते हैं। कान्हा भूरसिंह प्लेस्कूल ने उन्हें वन अधिकारियों के बच्चों के साथ लाने का काम किया। वे एक साथ ही ‘स्मार्ट कक्षाओं’ में पढ़ते हैं, समान भोजन खाते हैं और खेल मैदान में एक साथ खेलते हैं।

स्कूल में पढ़ाने वाली शिक्षिका आशु बिसेन ने आईएएनएस को बताया कि ज्यादातर जनजातीय बच्चे बेहद शर्मीले व संवेदनशील होते हैं और शुरुआत में अधिकतर डरे-डरे से रहते हैं।


उन्होंने कहा, “हमें उनके साथ बेहद सावधानी से बातचीत करनी होती है और बिलकुल बुनियाद से शुरुआत करनी होती है। अधिकांश बच्चों के पास घर पर खिलौने नहीं होते। वे कंप्यूटर, प्रोजेक्टर और कुछ मामलों में पहली बार तस्वीरें वाली किताबें देख रहे होते हैं। हमें उनके साथ बहुत धैर्य रखना होता है। लेकिन, समय के साथ उन्होंने प्रशंसनीय परिणाम दिखाए हैं।”

कान्हा राष्ट्रीय उद्यान के सहायक निदेशक एस.के. खरे ने कहा कि यह विचार जनजातीय बच्चों के बीच हीनभावना की मनोग्रंथि को खत्म करने का है, जिसे वे मुख्यधारा के लोगों के साथ बातचीत करते वक्त महसूस करते हैं।

मध्य प्रदेश सबसे अधिक जनजातीय आबादी वाले राज्यों में से एक हैं, जिसमें से अधिकतर संख्या जंगलों के आस-पास रहती है। हालांकि हाशिए पर रहने वाले जनजातीय समुदायों के बीच शिक्षा को लेकर बढ़ती जागरूकता ने उन्हें अक्सर शहरों की ओर जाने के लिए प्रोत्साहित किया है। लेकिन जनजातीय बच्चे अक्सर पिछड़ा महसूस करते हैं क्योंकि वे शहर के बच्चों के साथ खुद को जोड़ नहीं पाते।

खरे ने आईएएनएस को बताया, “हम यहां मुख्यधारा वाले बच्चों और जनजातीय बच्चों के बीच के अंतर को पाटने का प्रयास करते हैं क्योंकि किसी न किसी दिन ये बच्चे यहां से बाहर निकलेंगे और अपने आप को अलग सा महसूस पाएंगे। हमारा लक्ष्य एक ऐसी नींव तैयार करना है कि जब यह बेहतर और उच्च स्कूली शिक्षा के लिए जाएं, तो वहां बेहतर करें।”

यह स्कूल 2017 में शुरू हुआ था। यह स्कूल एक बंगले में चलता है, जो कि खरे को यहां अपनी तैनाती के वक्त आवंटित हुआ था। लेकिन, उन्होंने एक छोटे से घर में रहने का फैसला किया ताकि बंगले का बेहतर उपयोग किया जा सके। इस बंगले में तीन कक्षाएं, एक कंप्यूटर प्रयोगशाला, दो प्रोजेक्टर रूम, एक छोटा पुस्तकालय, एक स्टाफ रूम और एक रसोईघर बनाकर इसे नया आकार दिया गया है।

अन्य 20 दानकर्ताओं के साथ लास्ट वाइल्डरनेस फाउंडेशन द्वारा संचालित इस स्कूल में वन अधिकारी भी अपने बच्चों को भेजते हैं। यह स्कूल बच्चों को अपर किंडरगार्टन तक शिक्षा प्रदान करता है। स्कूल में सभी अध्यापक वन अधिकारियों की पत्नियां हैं।

खरे ने कहा कि इस स्कूल से न सिर्फ जनजातीय बच्चों को फायदा होता है बल्कि अधिकारियों के बच्चों को भी संवेदनशीलता, व्यापक स्वीकार्यता और विविधता की बेहतर समझ विकसित करने का मौका मिलता है। विशेषकर जब वे अपने सहपाठियों से बातचीत करते हैं, जो कि एक बिल्कुल अलग पृष्ठभूमि से आते हैं. जिनका दृष्टिकोण अलग होता है और जिनमें से कुछ के शरीर पर जनजातीय टैटू भी बने होते हैं।

उन्होंने कहा, “यह एक अच्छी चीज है कि वन अधिकारी और जनजातीय लोग, दोनों ही अपने बच्चों को एक ही स्कूल में भेजने से संकोच नहीं करते। यह उस विश्वास को दिखाता है जिसे विकसित करने में हम सक्षम रहे हैं।”

अध्यापक रिचा नामदेव के मुताबिक, बेहतर शिक्षा का प्रभाव न केवल बच्चों के जीवन पर बल्कि उनके परिवारों पर भी पड़ता है।

नामदेव ने कहा, “अधिकतर बच्चे बेहद गरीब पृष्ठभूमि से आते हैं। इन बच्चों को पढ़ा कर तैयार करने का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि वे अक्सर यहां से पढ़कर जाते हैं और इसे अपने घरों में दोहराते हैं। कुछ बच्चों ने अपने माता-पिता से सफाई के साथ रहना शुरू करने का आग्रह किया है, तो वहीं कुछ बच्चों ने अपने अभिभावकों से पढ़ना-लिखना सीखने का आग्रह किया है।”

जैसे ही मध्यावकाश की घंटी बजती है, स्कूल की लाल वर्दी पहने बच्चे अपने पसंदीदा खिलौने इकट्ठा करते हैं और खेलने के लिए दौड़ते हैं। एक और घंटी के बाद वे मैदान में अपने भोजन के लिए इकट्ठे होते हैं। कालीन पर बैठने के बाद उन्हें ताजा भोजन परोसा जाता है, उनके पोषण को ध्यान में रखते हुए भोजन पकाया जाता है। भोजन के बाद, एक समूह को फिल्म दिखाने के लिए प्रोजेक्टर रूम में ले जाया जाता है, जबकि दूसरा समूह कंप्यूटर रूम की ओर रवाना होता है।

अन्य अध्यापिका निशा वैश्य ने कहा, “हम यहां उन्हें किताबें, स्कूल की वर्दी, बस्ते और भोजन उपलब्ध कराते हैं। हम उनसे 150 रुपये प्रति माह की बहुत कम फीस वसूलते हैं और अगर बच्चा अत्यंत गरीब परिवार से है तो हम वह फीस छोड़ देते हैं।”

खरे के मुताबिक, फीस लेने का कारण शिक्षा के मूल्य को बरकरार रखने का है। यह जनजातीय समुदायों के आत्मसम्मान को भी संतुष्ट करता है जो अपने ऊपर किसी का दान नहीं चाहते हैं।

खरे ने कहा, “स्कूल से अच्छे परिणाम सामने आ रहे हैं और अधिक से अधिक परिवार अपने बच्चों को यहां भेज रहे हैं, विशेषतौर पर यह देखने के बाद कि कैसे यहां पर हमारे छात्रों को तैयार किया जा रहा है। हर कोई अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा पाने की इच्छा रखता है, विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले लोग। बच्चों में मौजूद क्षमताओं को देखने के बाद लगता है कि उनके पास एक अच्छा भविष्य है।”

उन्होंने कहा, “जैसा कि हम आज देख रहे हैं कि राष्ट्रीय उद्यान को बैगा और गोंड जैसी जनजातियों द्वारा वर्षों से सुरक्षित रखा जा रहा है। वे असली संरक्षक हैं और यह उनका घर है। अब मुख्यधारा के लोगों के लिए वक्त आ गया है कि वह उनका साथ दें। यह विद्यालय इसी दिशा में एक विनम्र प्रयास है।”

(यह साप्ताहिक फीचर श्रंखला आईएएनएस व फ्रैंक इस्लाम फाउंडेशन की सकारात्मक पत्रकारिता परियोजना का हिस्सा है।)

 

(इस खबर को न्यूज्ड टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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