Pandharpur Wari 2019: जगतगुरू संत तुकाराम महाराज (Sant Tukaram Maharaj) की पालकी का सोमवार को प्रस्थान होने के बाद आज दूसरे दिन आलंदी से संत ज्ञानेश्वर महाराज (Sant Dnyaneshwar Maharaj) की पालकी का प्रस्थान होगा। यह यात्रा 11 जुलाई तक चलेगी। दोनों पालकियां एक साथ पुणे पहुंचेगी। देहू में इस मौके पर राज्य के कोने कोने से आए लाखों श्रद्धालु उपस्थित थे। संत तुकाराम के जयघोष से देहू गांव गूंज उठा। इस साल यह यात्रा हरियाली से खास होगी। क्योंकि देवस्थान हरितवारी उपक्रम के अंतर्गत पालकी मार्ग पर हजारों पौधें लगाए जा रहे हैं।
आपको बता दें कि सोमवार तड़के पांच बजे पालकी समारोह शुरू हुआ। मंदिर में महापूजा की गई। उसके बाद इनामदार वाड़े में संत तुकाराम महाराज की पादुकाओं का पूजन किया गया। जहां राज्यमंत्री संजय उर्फ बाला भेगड़े, सांसद श्रीरंग बारणे, पिंपरी चिंचवड़ शहर के महापौर राहुल जाधव उपस्थित थे। पारंपारिक वाद्यों की गूंज और संत ज्ञानेश्वर सहित तुकाराम के जयघोष से वातावरण भक्तिमय हो गया। पालकी के साथ लाखों भक्त पंढरपुर तक पैदल जा रहे हैं।
आपको बता दें किसंत ज्ञानेश्वर महाराज और संत तुकाराम महाराज की वार्षिक तीर्थयात्रा (यात्रा) पंढरपुर वारी या वारी के नाम से जानी जाती है। ये धार्मिक यात्रा हिंदी महीने के आषाढ़ मास की एकादशी के दिन भगवान विट्ठल के दर्शन के साथ खत्म होती है। इस यात्रा के दौरान संबंधित मंदिरों से एक पालकी निकाली जाती है जो ज्ञानेश्वर और तुकाराम जैसे उल्लेखनीय संतों की पादुका (पैरों के निशान) ले जाती है जिसमें लाखों भक्त भाग लेते हैं।
इस साल इस यात्रा की शुरुआत, “ध्यानबा मौली तुकाराम” के मंत्रों की गूंज से हुई। 24 जून, सोमवार को आराम करने के बाद, वकारियों ने मंगलवार को पंढरपुर की यात्रा शुरू की। इस बार लगभग 90 प्रतिशत यात्रा के प्रतिभागी महाराष्ट्र के किसान हैं।
गौरतलब है कि महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में भीमा नदी के तट पर महाराष्ट्र का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल पंढरपुर स्थित है। पंढरपुर को दक्षिण का काशी भी कहा जाता है। पद्मपुराण में वर्णन है कि इस जगह पर भगवान श्री कृष्ण ने ‘पांडुरंग’ रूप में अपने भक्त पुंडलिक को दर्शन दिए और उसके आग्रह पर एक ईंट पर खड़ी मुद्रा में स्थापित हुए थे। हजारों सालों से यहां भगवान पांडुरंग की पूजा चली आ रही है, पांडुरंग को भगवान विट्ठल के नाम से भी जाना जाता है।
माना जाता है कि 1685 में तुकाराम के सबसे छोटे बेटे द्वारा पादुका ले जाने की परंपरा शुरू की गई थी। 1820 में तुकाराम के वंशजों और हयनेत्रवबाबा अर्पालकर नामक ज्ञानेश्वर के भक्तों द्वारा तीर्थयात्रा में और परिवर्तन लाया गया।