Ramdhari Singh ‘Dinkar’ Birthday: जिसने ललकार कर कहा था ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’

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Ramdhari Singh 'Dinkar' Birthday: जिसने ललकार कर कहा था 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है'

Ramdhari Singh ‘Dinkar’ Birthday special:  रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के बारे में एक कहानी है जिसका पुख्ता प्रमाण तो नहीं मिलता लेकिन ये कहानी अक्सर आपके कानों में कहीं न कहीं से आ ही जाती होगी। लाल किले पर एक कवि सम्मेलन हुआ था जिसकी अध्यक्षता ‘दिनकर’ कर रहे थे। इस सम्मेलन में उस वक़्त के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे।

पंडित नेहरू सीढ़ियों से ऊपर चढ़ कर मंच की ओर बढ़ रहे थे कि तभी उनका पैर लड़खड़ा गया। देर होती इससे पहले दिनकर ने उन्हें पकड़ लिया। जब नेहरू मंच पर बैठने लगे तो उन्होंने दिनकर का शुक्रिया अदा किया। दिनकर ने हंसते हुए कहा कि “इसमें शुक्रिया की क्या बात है जब जब राजनीति लड़खड़ाई है उसे कविताओं ने ही सम्भाला है।”


दिनकर ‘राष्ट्रकवि’ थे। एक बार उन्होंने कहा था कि राष्ट्रकवि होने के नाते मुझे मेरी ज़िम्मेदारियों का पता होना चाहिए। मुझे मेरे देश के बारे में पता होना चाहिए। दिनकर कांग्रेस से राज्यसभा के सांसद भी रहे थे।

राजनीति पर वो हमेशा अपने खुले विचार रखते थे। इतने खुले विचार कि एक बार उन्होंने नेहरू पर निशाना साधते हुए भरे संसद में एक कविता पढ़ी थी। ये कविता उन्होंने भारत को 1962 में मिली चीन से हार के बाद पढ़ी थी।

“वे देश शान्ति के सबसे शत्रु प्रबल हैं,
जो बहुत बड़े होने पर भी दुर्बल हैं,
हैं जिनके उदर विशाल, बाँह छोटी हैं,
भोथरे दाँत, पर, जीभ बहुत मोटी है।”


दिनकर ने जयप्रकाश नारायण से प्रभावित होकर उनके सम्मान में भी एक कविता लिखी थी।

 

“जयप्रकाश है नाम।
समय की करवट का, अंगड़ाई का।
भूचाल, बवंडर के ख्वाबों से।
भरी हुई तरुणाई का।
सेनानी करो प्रयाण अभय।
भावी इतिहास तुम्हारा है।
ये नखत अमा के बुझते हैं।
सारा आकाश तुम्हारा है।”

दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय में हुआ था। दिनकर कई हिंदी के अलावा संस्कृति, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू भाषा के भी ज्ञानी थे। दिनकर जनकवि कहे जाते थे। इसलिये उन्होंने आजादी मिलने के बाद भी आम जन की जुबान को अपने कलम के ज़रिए उतारना नहीं छोड़ा था।

दिनकर आज़ादी से पहले से ही कांग्रेस से जुड़े रहे थे। आजादी के बाद 1950 में उन्होंने सामंतवादी मानसिकता वाले लोगों को सिंहासन खाली करने के लिए एक रचना की। ये उनकी कालजयी रचना मानी जाती है।

“सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।”

दिनकर कर्ण से भी बेहद प्रभावित थे और इतने प्रभावित थे कि उन्होंने उनसे प्रेरित होकर ‘रश्मिरथी’ की रचना कर डाली थी। इस रचना को दिनकर के ज़िंदगी की सबसे बेहतरीन रचना मानी जाती है। इस रचना में ‘कृष्ण की चेतावनी’ आज भी लोगों के जुबान पर रहती है।

वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

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