राइट टू प्राइवेसी, डेटा सिक्योरिटी और हम

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राइट टू प्राइवेसी, डेटा सिक्योरिटी और हम

कहते हैं कि व्यक्ति भूल जाता है, लेकिन इंटरनेट आसानी से नहीं भूलता। जस्टिस पुट्टास्वामी केस, जिसमें उच्चतम न्यायालय के 9 न्यायधीशों की संवैधानिक पीठ ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए “निजता के अधिकार – Right to Privacy” को मूल अधिकार माना था, को धीरे-धीरे 2 साल होने वाले हैं। पर जब बात डिजिटल दुनिया की आती है तो क्या हम वाकई अपनी निजता को सुरक्षित रखने में समर्थ हैं? इस प्रश्न का उत्तर महज़ एक शब्द में दिया जा सकता है कि “नहीं”।

हमारा डिजिटल दुनिया में प्रवेश ही डेटा में सेंधमारी के साथ शुरू होता है। यदि बात मोबाइल की करें तो मोबाइल प्रयोग की आत्यांतिक शर्त है कि ‘एक एकाउंट होना चाहिए, यदि एकाउंट नहीं है तो फिर बनाने की जरूरत होगी’। अगले चरण में लोकेशन, माइक्रोफोन, कैमरा, कांटैक्ट्स, कैलेंडर, गैलरी सब तक पहुंच की अनुमति दीजिए, इसके पश्चात ही आप उस मोबाइल को प्रयोग में ला पाएंगे। और ये शर्तें आत्यांतिक शर्ते हैं, आपको इन्हें पूरा करना ही होगा अन्यथा आपका मोबाइल महज एक खिलौना भर है।


“हमारी निजता भंग होने से महज एक क्लिक की दूरी पर है।”

दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात है एप्लीकेशन, जो मोबाइल के अनिवार्य अंग हैं। बिना उनके आपका काम चल ही नहीं सकता। एप्लीकेशन इंस्टाल करने के बाद प्रयोग की अनिवार्य शर्त है कि आप उनके टर्म एंड कंडीशन्स को स्वीकारें, जितनी भी प्रकार की डाटा एक्सेस वे मांग रहे हैं, उन्हे भी स्वीकारें। हालांकि वहां अस्वीकार करने का भी विकल्प होता है, लेकिन तथ्यतः वह गैर फंक्शनल होता है क्योंकि यदि आप अस्वीकार करते हैं तो सीधा सा परिणाम है कि आप एप्लीकेशन यूज नहीं कर सकते हैं अर्थात आप सबकुछ स्वीकार करने को मजबूर हैं।

आमतौर पर हम टर्म एण्ड कंडीशन पढ़ते ही नहीं हैं और स्वीकृति प्रदान कर देते हैं। पर वहां एक बात लिखी होती है कि जो डेटा प्राप्त किया जा रहा है उसे कंपनी आपकी सहमति से प्रयोग करने को स्वतंत्र है। इसके साथ ही एक आश्वासन भी दिया गया होता है कि आपका डेटा
कंपनी के हाथों मे पूर्णतया सुरक्षित है। इसी आश्वासन के बल पर हम अपना डेटा कंपनी को सौंप देते हैं।


पर क्या हो जब वह आश्वासन तोड़ कर कंपनी आपका डेटा बेच दे? “फेसबुक” ने आखिर यही तो किया। “ट्रूकाॅलर” आज लगभग सभी मोबाइल का अभिन्न अंग बन चुका है, वो आपको किसी भी नंबर के बारे में बता देता है कि वो किसका है, आखिर ये कैसे संभव हो रहा? “व्हाट्सएप” बिना विज्ञापन बिना शुल्क सेवाएं देता है और फेसबुक ने 19 बिलियन डाॅलर में उसे खरीद लिया, क्या फायदा देखकर फेसबुक ने खरीदा उसे?

निजता का संवैधानिक अधिकार तो हम प्राप्त कर चुके हैं परन्तु क्या वास्तव में हम इतने सक्षम हैं कि अपनी निजता को बचाए रख सकें? डिजिटल दुनिया में हम मजबूर हैं।

(आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर फ़ॉलो और यूट्यूब पर सब्सक्राइब भी कर सकते हैं.)

Anant Vaibhav  @TheAnantVaibhav

(अनन्त वैभव, एलएल.एम. संवैधानिक विधि)