शाहीनबाग धरना : सुप्रीम कोर्ट ने कहा, दूसरों के आने-जाने का हक न छीना जाए

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नई दिल्ली, 21 सितंबर (आईएएनएस)। राष्ट्रीय राजधानी के शाहीनबाग में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ सड़क पर धरने पर बैठने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को टिप्पणी की कि लोगों के आने-जाने के अधिकार के साथ विरोध के अधिकार को संतुलित होना चाहिए।

शीर्ष अदालत ने कहा कि विरोध-प्रदर्शन अधिकार है, लेकिन यह किसी दूसरे के अधिकार पर अतिक्रमण करके नहीं किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हर किसी को एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने का अधिकार है और विरोध प्रदर्शन करने के लिए सार्वजनिक सड़क को अवरुद्ध करके इस अधिकार को क्षति नहीं पहुंचाई जा सकती।


न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, कृष्ण मुरारी और अनिरुद्ध बोस की खंडपीठ ने लगभग सात महीने के अंतराल के बाद दिल्ली के शाहीनबाग में सार्वजनिक रास्ते को अवरुद्ध करने वाले सीएए प्रदर्शनकारियों के खिलाफ दलीलें सुनीं।

सुनवाई की शुरुआत में पीठ ने याचिकाकर्ताओं से कहा कि क्या वे याचिका वापस लेने के लिए तैयार हैं। इस पर याचिकाकर्ताओं में से एक ने जवाब दिया कि वे इसके लिए तैयार नहीं हैं।

इस मामले में एक अन्य याचिकाकर्ता वकील अमित साहनी ने दलील दी कि भविष्य में इस तरह की घटनाओं को नहीं दोहराना चाहिए और बड़े जनहित को देखते हुए इस मामले में फैसला किया जाना चाहिए।


हस्तक्षेपकर्ताओं की ओर से पेश अधिवक्ता महमूद प्राचा ने पीठ के समक्ष दलील दी कि शांतिपूर्वक विरोध करने का अधिकार निरपेक्ष है और यह लोगों का अधिकार है कि वे नागरिकता संशोधन अधिनियम और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का एक अवधारणा के रूप में विरोध कर सकें।

न्यायमूर्ति कौल ने कहा, “हम शांतिपूर्वक विरोध करने के आपके अधिकार पर बहस नहीं कर रहे हैं।”

साहनी ने पीठ से इस मामले को लंबित रखने का आग्रह किया और कहा कि इस पर एक विस्तृत आदेश पारित किया जा सकता है।

प्राचा ने कहा, “कुछ लोग विरोध स्थल पर गए और फिर दंगे हुए। मैं उनका नाम नहीं लेना चाहता।” उन्होंने कहा कि राज्य मशीनरी का दुरुपयोग करके प्रदर्शनकारियों को गलत नहीं ठहराया जाना चाहिए।

प्राचा ने शांति से विरोध करने के लिए सार्वभौमिक नीति की जरूरत का हवाला देते हुए दलील दी, “ऐसा नहीं है कि राज्य मशीनरी पूरी तरह से सही है। एक राजनीतिक दल से जुड़े व्यक्ति उनके पास क्यों गए और फिर दंगे हो गए।”

शीर्ष अदालत ने कहा, “विरोध करने का अधिकार संपूर्ण नहीं है, लेकिन फिर भी एक अधिकार है। एक सार्वभौमिक नीति नहीं हो सकती, क्योंकि हर बार स्थितियां और तथ्य अलग-अलग होते हैं। संसदीय लोकतंत्र में हमेशा बहस का एक अवसर होता है। एकमात्र मुद्दा यह है कि इसे कैसे संतुलित किया जाए।”

–आईएएनएस

एकेके/एसजीके

(इस खबर को न्यूज्ड टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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