Sitaram Kesri Death Anniversary: जिसके बारे में कहा गया, ‘न खाता न बही, जो चचा केसरी कहें वही सही’

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Sitaram Kesri Death Anniversary: जिसके बारे में कहा गया, 'न खाता न बही, जो चचा केसरी कहें वही सही'

अगर कोई नेता  शुरुआती दिनों से पार्टी की सेवा करता आ रहा हो और उसे एक दिन जबरन पार्टी से बेदखल कर दिया जाए तो कैसा लगेगा?  अगर एक नेता किसी बैठक से रोता हुआ बाहर निकले तो कैसा लगेगा?  कई कहानियां हैं जो सत्ता के गलियारे से होती हुई जनता तक पहुंचती हैं। ऐसी ही एक कहानी आज उस नेता की जिसका नाम है सीताराम केसरी।

सीताराम केसरी का जन्म साल 1916 में बिहार के पटना ज़िला के दानापुर में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा दानापुर के ही सरकारी स्कूल में हुई। सीताराम केसरी मात्र 13 वर्ष की उम्र में ही स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए थे। ऐस कहा जाता है कि वे ढोलक बजाते हुए दानापुर और पटना के आस-पास के इलाकों में घूमते थे। ऐसा करके वे लोगों को आजादी का महत्व बताते और उनके मन में आजादी की आस जगाते।


साल 1930 से लेकर भारत छोड़ो आंदोलन तक वे कई बार जेल भी। वे लगभग साढ़े सात वर्षों तक ब्रिटिश भारत की जेलों में कैद रहे। केसरी महात्मा गांधी से बेहद प्रभावित थे। यही कारण है कि वो आजादी के पहले से ही कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए थे।

केसरी 1967 में पहली बार जनता पार्टी की टिकट पर बिहार के कटिहार संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा था। ये चुनाव वो जीत गए थे। इसके बाद उन्होंने दोबारा कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली। साल 1973 में उन्हें बिहार कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। साल 1980 में वो कांग्रेस के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष नियुक्त किए गए।

उनके बारे में एक स्लोगन उस दौर में काफी चर्चित हुआ था, ‘न खाता न बही, जो चचा केसरी कहें वही सही।’ केसरी जुलाई 1971 से अप्रैल 2000 तक लगातार पांच बार बिहार से राज्यसभा के सदस्य चुने गए।


मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद जिस पहले ओबीसी युवक को सरकारी नौकरी मिली थी, उसे नियुक्ति पत्र प्रदान करने वाले कोई और नहीं बल्कि सीताराम केसरी ही थे। उस वक्त केसरी सामाजिक न्याय व कल्याण मंत्रालय संभाल रहे थे।

जब नरसिम्हा राव ने कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से अपना इस्तीफा दिया था तो केसरी को ही 1996 में कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था। जगजीवन राम के बाद केसरी कांग्रेस के दूसरे गैर-सवर्ण राष्ट्रीय अध्यक्ष बने।

साल 1998 के मध्यावधि चुनाव में सीताराम केसरी के साथ-साथ सोनिया गांधी ने भी प्रचार में हिस्सा लिया लेकिन कांग्रेस 140 सीटें ही जीत पाई। ये वही दौर था जब समय भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी की कोयम्बटूर की एक चुनावी सभा में भयंकर बम विस्फोट हुआ जिसमें 50 से अधिक लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हुए।

केसरी ने इस घटना के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ही जिम्मेदार ठहरा दिया था। इसके बाद आरएसएस ने केसरी के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज कराया लेकिन 1998 में ही कोर्ट ने उन्हें जमानत दे दी थी।

इन सब के बाद चुनाव में कांग्रेस की हार की पूरी जिम्मेदारी सीताराम केसरी पर थोप दी गयी और उन्हें मार्च 1998 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया। इसके बाद इस पद पर सोनिया गांधी को लाया गया। केसरी को कांग्रेस पार्टी के संवैधानिक प्रावधानों को ताक पर रखकर हटाया गया था।

पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने किताब ‘द कोयलिशन इयर्स 1996-2012’ में इस घटना के बारे में लिखते हैं, ‘5 मार्च 1998 को सीताराम केसरी ने कांग्रेस कार्य समिति की बैठक बुलाई थी। इस बैठक में जितेंद्र प्रसाद, शरद पवार और गुलाम नबी आज़ाद ने सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने की पहल का आग्रह किया। केसरी ने यह सुझाव ठुकरा दिया और मुखर्जी समेत अन्य नेताओं पर उनके खिलाफ षड्यंत्र रचने के आरोप लगाए। वह बाद में बैठक छोड़कर चले गए। मुखर्जी का कहना है कि केसरी खुद ही बैठक छोड़कर चले गए थे।’

ऐसा कहा जाता है कि, 24 अकबर रोड, कांग्रेस मुख्यालय से वे रोते हुए बाहर निकले थे जिसे तस्वीर सहित कई अखबारों ने छापा था। केसरी के साथ कांग्रेस मुख्यालय में काफी बदसलूकी की गई थी और उन्हें जबर्दस्ती बाहर निकाला गया था।

उस वक्त के बड़े पत्रकार राशिद किदवई ने अपनी किताब ‘ए शार्ट स्टोरी ऑफ द पीपल बिहाइंड द फॉल एंड राइज ऑफ द कांग्रेस’ में लिखते हैं कि दिल्ली के 24, अकबर रोड स्थित मुख्यालय से सीताराम केसरी को बेइज्जत कर निकाला गया था। उन्हें कांग्रेस से निकालने की मुहिम में सोनिया गांधी को प्रणव मुखर्जी, ए के एंटनी, शरद पवार और जितेंद्र प्रसाद का पूरा सहयोग मिला।

इन सब के बाद उन्होंने राजनीति से सन्यास ले लिया था। 24 अक्टूबर 2000 को एम्स में इलाज के दौरान मृत्यु हो गई।

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