ज़मीन पर क्यों विफल हो रही है मनरेगा?

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ज़मीन पर क्यों विफल हो रही है मनरेगा?

मनरेगा भारत सरकार की एक जनकल्याणकारी रोजगार योजना है जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में हर एक बालिग व्यक्ति को कम से कम 100 दिन का रोजगार सुनिश्चित करने का प्रावधान है। लेकिन यथार्थ के धरातल पर यह योजना विफल होती हुई दिख रही है। उसका कारण सरकारी उदासीनता के साथ सरकारी महकमा में व्यापक भ्रष्टाचार भी है।

मनरेगा में न तो 100 दिन का रोजगार मिल पा रहा है और न ही समय पर मजदूरी ही मिल रही है। बिहार में ‘मनरेगा वाॅच’ नामक संस्था से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता संजय साहनी कहतें हैं कि मनरेगा में बिहार में औसतन 40 से 50 दिन का ही रोजगार मुश्किल से मिल पाता है। वह भी उस इलाके में जहां मजदूर संगठन मजबूत है और इसे लेकर संघर्ष करतें हैं। मुजफ्फपुर में भी मनरेगा को लेकर संघर्ष हुआ जिसके कारण स्थिति बदली। वह कहतें हैं कि लोग अपने अधिकारों के लिए जागरूक नहीं हैं। लोगों में सरकारी योजना के प्रति जागरूकता की ज़रूरत है। योजना में भ्रष्टाचार भी है लेकिन बिहार में पहले की तुलना में भ्रष्टाचार में काफी कमी आई है।


मनरेगा में कम मजदूरी और कम दिन के रोजगार का सवाल मजदूर किसान शक्ति संगठन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता निखिल दे भी उठातें है। निखिल कहतें हैं कि मनरेगा से ग्रामीण क्षेत्रों में बदलाव तो आया है वहां आम मजदूरी बढ़ी है लेकिन मनरेगा में मजदूरी बहुत कम है। जिसके कारण अकसर मजदूर इसे टाल कर रोजगार का बेहतर विकल्प शहरों में तलाशतें हैं।

निखिल कहतें हैं बजट की कमी के कारण हर जगह 100 दिन का रोजगार नहीं मिलता है लेकिन जहां मजदूर संगठन मजबूत है वहां तो 100 दिन का रोज़गार मिल जाता है। दूसरी बड़ी समस्या भुकतान में देरी होती है जिससे मजदूर काम करना पसंद नहीं करतें हैं क्योंकि उन्हें हर रोज पैसा चहिए होता है। भ्रष्टाचार के सवाल पर निखिल कहतें हैं कि मनरेगा में दूसरी योजनाओं से ज्यादा पारदर्शिता है।

गया के भुलुआ पंचायत के पूर्व मुखिया, अमजद मनरेगा की विफलता का कारण इसमें पहले से व्यापक भ्रष्टाचार और कम मजदूरी को मानतें हैं। अमजद मुखिया कहते हैं कि मनरेगा में पैसा बहुत कम है लोग जाॅब काॅर्ड तो बना लेतें हैं काम करने कहीं और चले जातें हैं। ये अपने जाॅब कार्ड पर कमीशन खातें हैं और खिलातें भी हैं। विकास का काम भी नाम मात्र का होता है जितना काम होता है बिल उससे ज्यादा का बना दिया जाता है। जिस मकसद से मनरेगा सरकार ने लाया था वह मकसद पूरा नहीं हो पा रहा है।


लेकिन चाकंद पंचायत समिति के सदस्य हफीज कुछ और ही हकीकत बयां करतें हैं वह कहतें हैं कि मनरेगा में पूंजी घर से लगाना पड़ता है। मजदूरों को कैश में पैसा देते हैं और अकाउंट में पैसा बहुत लेट से आता है। साथ ही मेटेरियल का पैसा भी जेब से लगाना पड़ता है। वह इस योजना की तो तारीफ करतें हैं लेकिन पेमेंट के लिए उन्हें मनरेगा कार्यालय का चक्कर काटना पड़ता है इसकी शिकायत करतें हैं।

गया के बारा गांव की मुखिया तबस्सुम कहतीं हैं मनरेगा से गांव के सामाजिक और आर्थिक स्थिति में बदलाव आया है। इस योजना से गांव में पैन, नालियां और पोखर बनाने का काम हुआ है लेकिन मजदूरी इतनी कम है कि कोई काम करना नहीं चाहता है मुश्किल से मजदूर मिलता है ऊपर से पेमेंट लेट होता है। मजदूरों को पेमेंट मिलने में महीना लग जाता है। मेटेरियल के पेमेंट में और भी लेट होता है।

मनरेगा योजना पर किए गये कई अध्ययनों में ये बात स्पष्ट रूप से रेखांकित की गयी है कि मनरेगा में 100 दिन के रोज़गार के बजाए 40 से 50 दिन का रोज़गार ही मिल पाता है। बिहार और उत्तर प्रदेश में स्थिति और ज्यादा खराब है। हाल ही में पंजाब विश्वविद्यालय में हुए शोध में भी इस तरह के ही निष्कृष सामने आएं हैं। सही मोनिटरिंग और सोशल ओडिटिंग न होने के कारण इसमें भ्रष्टाचार भी फैल रहा है। जिस कारण निचले स्तर तक इस जनकल्याणकारी योजना का लाभ पूरी तरह नहीं पहुंच पा रहा है।

मनरेगा में कम मजदूरी एक बहुत बड़ी समस्या है मनरेगा में केवल एक ही राज्य नागालैंड में मजदूरी न्यूनतम मजदूरी से अधिक है बाकी सभी राज्यों और केंद्रशषित प्रदेशों में न्यूनतम मज़दूरी से बहुत कम मजदूरी दी जाती है। बिहार में जहां न्यूनतम मजदूरी 268 रूपया प्रतिदिन है वहीं मनरेगा में दी जाने वाली मजदूरी केवल 171 रूपया ही है। आमतौर से बिहार के शहरों में सामान्य मजदूरी 350-500 प्रतिदिन है। मनरेगा में मजदूरी लंबे वक्त से बढ़ी ही नहीं है।

मनरेगा में बाजार मूल्य से कम मजदूरी दिए जाने के कारण आम तौर पर ग्रामीण इलाकों में पुरुष शहरों में पलायन करने को मजबूर हैं इसके अलावा शहरों में रोज़ मजदूरी भी मिल जाती है। इसके बरक्स औरतें मनरेगा को पुरुष के मुकाबले ज्यादा पसंद करती हैं उसका कारण ये भी है की बाजार में उनकी मजदूरी पुरुषों के मुकाबले बहुत कम दी जाती है और उन्हें ज्यादा मेहनत वाले कामों में नहीं लिया जाता है इसलिए वह बाजार मूल्य से कम पर भी काम करने को तैयार हैं।

निखिल भी यही कहतें हैं कि मनरेगा का सबसे ज्यादा फायदा महिलाओं को मिला है ये महिलाओं का ही कार्यक्रम है। महिलाओं का मनरेगा के कारण बैंक में एकाउंट खुला इससे उनका राजनीतिक चेतना और भागीदारी दोनों बढ़ा। राजस्थान में 70 प्रतिशत महिलाएं ही इस योजना में लगी है। ऐसा पहली बार हुआ जब किसी फाॅरमल वर्क फोर्स में इतनी बड़ी तादाद में महिलाएं शामिल हुई हैं।

बिहार में ‘मनरेगा वाॅच’ के अनुसार महिलाओं की भागीदारी 90 प्रतिशत तक हो सकती है क्योंकि पुरूष बेहतर रोजगार के लिए या तो पलायन कर चुका होता है या शहरों में काम तलाशता है।

ये अपने आप में बड़ा दिलचस्प है इसे महिलाओं की मजबूरी कहें कि उन्हें कम पैसे में काम करना पड़ रहा है या मनरेगा में उनके लिए अवसर कि उन्हें गांव में ही काम मिल रहा है। लेकिन मनरेगा का सबसे ज्यादा असर ग्रामीण महिलाओं के जीवन पर ही पड़ा है। मनरेगा के कारण उन्हें साल में 40 से 50 दिन का काम मिला है बल्कि गांव में अब मजदूरी पहले से कई गुणा बढ़ गयी है। पहले खेतों में में दिन भर की मजदूरी एक सेर कच्ची मिलती थी वह अब बढ़कर 5 किलो चावल तक पहुंच चुका है और दहाड़ी 350-500 तक मिलती है।

हाल में आए कृषि संकट और आर्थिक मंदी के कारण मनरेगा की मांग लगातार बढ़ रही है जिसकी पुष्टि खुद ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़े भी कर रहें हैं लेकिन इसके बावजूद मनरेगा के बजट में कटौती की जा रही है।

वित्त मंत्रालय ने वित्तिय वर्ष 2020-2021 में मनरेगा का बजट केवल 61,500 करोड़ निर्धारित किया जो कि वित्तिय वर्ष 2019-2020 के बजट 71,001 करोड़ की तुलना में 13 लगभग प्रतिशत कम है। जबकि इसकी मांग पहले से अधिक है। मनरेगा जनकल्याणकारी योजननाओं में एक अच्छी पहल थी जिसका असर बिलकुल जमीनी स्तर पर देखा गया लेकिन ये योजना लगातार सरकारी उदासीनता और उपेक्षा का शिकार है।

(लेखक नेशनल फाउंडेशन फाॅर इंडिया के फेलो और जामिया मिल्ल्यिा इस्लामिया में शोधार्थी हैं)

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