ना ली जाए बेटियों की जान है आज़ादी, बेटियों का भी हो खानदान है आज़ादी,
ना हो कन्याओं का दान है आज़ादी, हो बेटियां भी खानदान की शान है आज़ादी
ये पंक्तियां कमला भसीन द्वारा लिखी कविता की है। कमला भसीन कवित्री, लेखिका, समाजसेवी होने के साथ लंबे समय से महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाती रहीं हैं। वे संगत नाम की संस्था से जुडी हैं और लगभग चार दशकों से देश और विदेश में महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर काम कर रहीं हैं।
परिवर्तन की राह आसान नहीं, लेकिन नामुमकिन भी नहीं है
क्यूंकि मैं लड़की हूँ, मुझे पढना है, हँसाना तो संघर्षों में भी जरूरी है जैसी अनगिनत कवितायेँ और नारे लिख चुकीं कमला भसीन समाज में बदलाव के प्रति आशावादी हैं। उन्हें लगता है की परिवर्तन की राह आसन नहीं है लेकिन नामुमकिन भी नहीं है। आज महिलाएं अपने अधिकाओं के लिए पहले से ज्यादा जागरूक हैं। अपने से जुड़े कानूनी प्रावधानों को जानने लगी हैं. लेकिन सफ़र बहुत लम्बा है और इस पर बिना रुके निरंतर चलने की जरूरत है।
स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर बने
कमला आज की नारी को स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर बनने की सलाह देती हैं ताकि उसे कभी दूसरों का शोषण न सहना पड़े। वो कहती हैं कि “जब तक हम सशक्त नहीं होंगे, अपने अधिकारों के लिए नहीं आवाज़ उठा पाएंगे। अगर अन्याय से लड़ना है तो ज्ञान अर्जित करो”। वो मानती हैं की आज के दौर में लड़कियां कुछ भी कर सकती हैं और ये लड़कियों ने अपनी मेहनत और लगन के दम पर साबित भी किया है।
पित्रसत्तात्मक सोच सबसे बड़ी चुनौती
कमला भसीन हमारे समाज के ताने-बने को महिलाओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती मानती हैं। उनके अनुसार हमारा धर्म, हमारी परम्पराएं, रीति- रिवाज़, सामाजिक संरचना पित्रसत्तात्मकता को बढ़ावा देती है। हमारी संस्कृति कन्यादान और पति परमेश्वर जैसे ढकोसलों में महिलाओं को बांध देती हैं। जहाँ आगे चलकर स्त्री का दम घुटने लगता है। तीज- त्यौहार पति की आराधना करना सिखा देते हैं। कमला पति को पति बोलने को भी अलग नज़रिए से देखती हैं। वो कहती हैं “ पति शब्द में मालिक का अस्तित्व झलकता है, जैसे करोड़पति, जो करोड़ों का मालिक हो। लेकिन स्त्री का मालिक कोई नहीं हो सकता क्यूंकि संविधान में सबको बराबर का अधिकार प्राप्त है”। वो कहती हैं औरत किसी की गुलाम नहीं है।
बराबरी की लड़ाई औरत या मर्द की नहीं, मानसिकता की लड़ाई है
बराबरी की लड़ाई को कमला औरत या मर्द की लड़ाई नहीं मानती, वो इसे मानसिकता की लड़ाई मानती है। वो कहती हैं कि “जब तक समाज की सोच नहीं बदलेगी, बदलाव संभव नहीं है”। उनके अनुसार नारी खुद सक्षम है खुद के लिए। घरेलू हिंसा, दहेज़ प्रथा को कमला एक कलंक मानती हैं और इसका पुरज़ोर विरोध करने की मांग करती हैं।
“बेटी दिल में, बेटी विल में” और “शेरिंग ऑफ़ अनपेड वर्क”
कमला मानती हैं की लड़कियों को बराबरी का दर्जा तभी मिलेगा जब घर की जायदाद में उसे उनका हिस्सा मिलेगा। इसके लिए उनकी संस्था ने “ बेटी दिल में, बेटी विल में” नाम से कैम्पेन भी शुरू किया है। उनकी एक और कोशिश हैं “शेरिंग ऑफ़ अनपेड वर्क”। इसके जरिए वो पुरुषों को भी घर के कामों में हाथ बटाने का अभियान चला रहीं हैं। क्यूंकि हम अक्सर लड़कियों को तो अपने पैरों पर खड़े होने की वकालत करते हैं लेकिन कभी लड़कों को घर में हाथ बटाना नहीं सिखाते। कमला अपने इन प्रयासों से एक बेहतर कल को देखती हैं जहाँ स्त्री और पुरुष के बीच कोई भेदभाव नहीं होगा। सब एक साथ समानता की जिंदगी बसर करेंगे और मिलकर खुबसूरत बनायेंगे ये सारा जहाँ।
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