देश में जल संकट गहराता जा रहा है। नीति आयोग के आंकड़ें डरावने हैं। इन सबके बावजूद आज-कल जहां ज्यादातर लोग बिना सोचे-समझे पानी खर्च रहे हैं तो कुछ लोग ऐसे भी लोग हैं जो दूसरे देश से आकर हमारे यहां पानी की तंगी खत्म करने की कोशिश कर रहे हैं। इन्हीं में से एक हैं आयरिश पर्यावरणविद कैरोन रॉन्सले। वे साल 2014 में घूमने के लिए भारत आए। जब रॉन्सले जोधपुर पहुंचे तो वहां जलसंकट ने उन्हें इतना परेशान किया कि तब से वे यहीं रहकर पानी के ट्रेडिशनल स्त्रोतों पर काम कर रहे हैं। हालांकि शुरुआत में उनकी बातों पर स्थानीय लोग उन्हें पागल साहब कहते थे लेकिन अब वही लोग उनके साथ काम कर रहे हैं।
आपको बता दें कि लगभग साढ़े 4 सालों में रॉन्सले ने जोधपुर के ढेर सारे स्टेपवेल यानी बावड़ियों की मरम्मत और रखरखाव का काम किया है। इनमें से कुछ राम बावड़ी, क्रिया झालरा। गोविंदा बावड़ी, चंडपोल बावड़ी, महामंदिर बावड़ी। तापी और गुलाब सागर झील हैं। बारिश के पानी को नहरों के जरिए इनकी तरफ मोड़ दिया जाता था। इससे बावड़ी के नीचे जलस्तर अच्छा होने लगेगा और कुछ ही बारिशों में ये पानी से लबालब हो जाएगी। गर्मी में पानी भाप बनकर न उड़े या कम नुकसान हो, इसके लिए बावड़ी काफी गहरी बनाई जाती है। पुराने समय में बावड़ी ही ग्रामीण और शहरी इलाकों में घरेलू जरूरतों में पानी की आपूर्ति का साधन होती थी।
जब धीरे-धीरे नदियों से पानी की आपूर्ति बढ़ने लगी, जिससे जलसंचय के इस परंपरागत तरीके पर लोगों का ध्यान कम जाने लगा। देखरेख के अभाव में पुरानी बावड़ियां बेकार होने लगीं। रॉन्सले जब भारत भ्रमण के लिए आए तो जोधपुर भी पहुंचे। तभी बावड़ी के सिस्टम के बारे में जाना। रॉन्सले पुराने वक्त की इस तकनीक से प्रभावित हुए, साथ ही उन्हें तकलीफ भी हुई कि अब पानी की तंगी के बावजूद लोगों का इसपर ध्यान नहीं जा रहा है। इसके बाद ही रॉन्सले ने बावड़ियों को ठीक करने की ठान ली।
गौरतलब है कि रॉन्सले पहली बार 2014 में भारत पहुंचे। घूमते-घामते और रेनवॉटर हार्वेस्टिंग पर लोगों की मदद करते-करते वे जोधपुर पहुंचे। यहां स्टेपवेल की दशा देखकर उनपर काम शुरू किया। हालांकि ये उतना आसान नहीं था। पहले रॉन्सले स्थानीय अधिकारियों और एनजीओ से मिले। उनसे बावड़ियों की सफाई की बात की। कोई आश्वासन या मदद न मिलने पर रॉन्सले ने खुद पहल की। बावड़ियां मरी हुई मछलियों, घास, जलकुंभियों और शराब की बोतलों, कचरे से भरी हुई थीं। सबसे पहले इनकी सफाई जरूरी थी। अकेले ये करना मुमिकन नहीं था। आखिरकार एक ट्रस्ट मदद के लिए सामने आया। ट्रस्ट की मदद से कुछ बावड़ियों को नगर निगम से लिया गया और एक रोल मॉडल तैयार हुआ कि इस तरह से सफाई और फिर मरम्मत करनी है। 70 साल के विदेशी को अपनी ही बावड़ियों की साफ-सफाई के लिए जुटा देखकर स्थानीय लोग भी सहयोग के लिए आने लग। मजदूरों और स्वयंसेवकों की मदद से लगातार बावड़ियां साफ की जा रही हैं।
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