रायपुर, 15 अक्टूबर (आईएएनएस)| सनातन धर्म में किसी भी धार्मिक आयोजन से पहले स्थल को गोबर से लेप कर पवित्र किया जाता है। मान्यता है कि गाय का गोबर सबसे पवित्र होता है। अब छत्तीसगढ़ की महिलाएं गोबर से दीए बना रही हैं, जो राज्य में ही नहीं देश के विभिन्न हिस्सों में दीपावली को रोशन करेंगे।
राजधानी रायपुर से लगभग 45 किलोमीटर दूर स्थित है बनचरौदा गांव। यहां गोठान बनाई गई है। यहां पहुंचने पर गाएं विचरण करती, चारा-पानी ग्रहण करती नजर आती हैं तो दूसरी ओर महिलाओं का समूह आकर्षक रंग-बिरंगे दीयों को आकार दे रहा होता हैं। ये दीए मिट्टी के नहीं, बल्कि गाय के गोबर के होते हैं।
जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी गौरव सिंह बताते हैं, “बनचरौदा की गोठान में स्वसहायता समूह की 46 महिलाएं गोबर से दीए और अन्य सामग्री बनाने का काम कर रही हैं। इन दिनों दीयों का निर्माण जोरों पर है, क्योंकि दीपावली करीब है। छत्तीसगढ़ ही नहीं, दिल्ली सहित विभिन्न स्थानों से गोबर के दीयों का आर्डर आया हुआ है, आर्डर इतना है कि उसे पूरा कर पाना आसान नहीं है।”
सिंह बताते हैं, “अप्रैल से जुलाई तक गोठान के निर्माण काम हुआ। इस काम में मनरेगा के तहत और स्वसहायता समूह के तहत महिलाओं ने काम किया। उसके बाद से अगस्त माह से गोबर के उत्पादों, उदाहरण के तौर पर दीए, स्वास्तिक, ओम, हवन कुंड आदि को बनाने का अभियान शुरू किया गया। गोबर में उड़द की दाल, इमली की लकड़ी आदि का पाउडर मिलाकर आकर देने योग्य मिश्रण तैयार किया जाता है, जिसे सांचों के जरिए दीयों का रूप दिया जाता है। उसके बाद उन्हें सुखाया जाता है और फिर उन पर विभिन्न रंगों के जरिए आकर्षक स्वरूप दिया जाता है।”
महिलाएं बताती हैं, “तीन तरह के दीए बनाए जा रहे हैं। एक दीया ऐसा है, जो कई बार उपयोग में लाया जा सकता है, दूसरे तरह के वे दीए हैं, जिनका लगातार उपयोग करने के साथ क्षरण होता जाता है, और अन्य ऐसे दीए हैं, जो एक बार में ही जल जाते हैं। एक बार में जल जाने वाले दीयों में हवन और धूप सामग्री का उपयोग किया जाता है।”
जिला पंचायत के कार्यपालन अधिकारी सिंह बताते हैं, “दीपावली को ध्यान में रखकर बड़ी तादाद में दीयों का निर्माण किया जा रहा है। एक दीए की बिक्री कीमत दो रुपये है। ये दीए पर्यावरण की दृष्टि भी अच्छे हैं, क्योंकि इनके जलने के बाद मिट्टी में डाल दिया जाए तो वे खाद में बदल जाएंगे।”
वह बताते हैं कि “इस काम में लगीं महिलाएं एक दीए से एक से सवा रुपये कमाती हैं। इस तरह एक दिन में ढाई सौ से तीन सौ दीए बनाकर तीन सौ रुपये से ज्यादा कमा लेती हैं। एक दीए की लागत मुश्किल से 75 पैसे आती है। गोबर गोठान में ही मिल जाता है।”
सरपंच कृष्ण कुमार साहू का कहना है, “गोठान बनने से आवारा मवेशियों की समस्या पर अंकुश लगा है। फसलों को नुकसान होने का खतरा कम हुआ है। गोबर से कलाकृतियां बनाने से जहां महिलाओं को रोजगार मिला है, वहीं पर्यावरण मित्र कृतियों का निर्माण हो रहा है।”
छत्तीसगढ़ में आवारा जानवर बड़ी समस्या बने हुए हैं, उनको आशियाने और खानपान की सुविधा के लिए गोठान बनाए गए हैं। यह वह स्थान है, जहां मवेशी चर सकते हैं, विचरण कर सकते हैं, उसे अन्य चिकित्सा सुविधाएं भी हासिल होती हैं। एक अनुमान के मुताबिक, छत्तीसगढ़ में एक करोड़ 28 लाख से ज्यादा जानवर हैं, इनमें 30 लाख आवारा हैं। जिसके कारण खेतों की फसलों को नुकसान होने के साथ सड़कों पर हादसे भी होना आम रहा है। इन जानवरों, खास कर गायों के लिए गोठान बनाए गए हैं। राज्य में अब तक दो हजार गोठान बन चुके हैं। इन गोठानों के लिए ग्राम पंचायतों ने 30 हजार एकड़ जमीन दी हैं।
गोठान में चरवाहा गांव के पालतू व आवारा मवेशियों, जिनकी संख्या लगभग छह सौ है, को लेकर आता है। यहां दिन भर मवेशी रहते हैं, पालतू मवेशी तो शाम को घरों को चले जाते हैं, मगर आवारा मवेशी गोठान में ही रहते हैं। इनके गोबर से ही ये उत्पाद तैयार किए जा रहे हैं। गोठान के बनने से जहां फसलें भी सुरक्षित रहती हैं तो वहीं मवेशियों को भी दाना-पानी मिल जाता है। यहां बीमार मवेशियों का इलाज भी किया जाता है, वहीं शाम होने के बाद उन्हें घर के लिए छोड़ दिया जाता है।
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