पुण्यतिथि विशेष : राजनीति और धर्म के मेल के खिलाफ थे गणेशशंकर विद्यार्थी

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‘मैं हिन्दू-मुसलमान झगड़े की मूल वजह चुनाव को समझता हूं। चुने जाने के बाद आदमी देश और जनता के काम का नहीं रहता’। ये शब्द प्रख्यात पत्रकार गणेशशंकर विद्यार्थी के हैं। उन्होंने 1925 में कांग्रेस के टिकट पर एक चुनाव जीतने के बाद मशहूर लेखक और संपादक बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखे अपने पत्र में राजनीतिक माहौल पर आक्रोश जाहिर करते हुए लिखा था।

2019 लोकसभा चुनाव होने में बस कुछ ही समय बचा है। ऐसे में देश की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए ये सच्चाई एक दम सटीक बैठती है।

26 अक्टूबर 1890 को जन्मे गणेशशंकर विद्यार्थी जिंदगी भर दंगों के खिलाफ रहे। यही धार्मिक उन्माद उनकी जिंदगी का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया। 25 मार्च 1931 को कानपुर दंगों में उन्हें मार दिया गया। उनका जन्म इलाहाबाद के एक शिक्षक जयनारायण श्रीवास्तव के घर हुआ था। पत्रकार गणेशशंकर विद्यार्थी ताउम्र अपनी लेखनी के जरिए लोगों को धार्मिक उन्माद के प्रति सावधान करते रहे। 1913 में उन्होंने अपनी साप्ताहिक पत्रिका प्रताप शुरु की थी। इस पत्रिका को किसानों के हमदर्द के रूप में पहचाना जाने लगा। किसान विद्यार्थी जी को सम्मान से ‘प्रताप बाबा’ भी कहते थे।

गणेशशंकर विद्यार्थी की कलम से निकले वो कथन जो आज भी प्रासंगिक हैं

गणेशशंकर विद्यार्थी शुरुआत से ही राजनीति और धर्म के मेल के खिलाफ थे। 27 अक्टूबर, 1924 को प्रताप में उन्होंने ‘धर्म की आड़’ नाम से एक लेख लिखा, जिसकी आज भी प्रासंगिकता है। गणेश विद्यार्थी लिखते हैं, ‘देश में धर्म की धूम है और इसके नाम पर उत्पात किए जा रहे हैं। लोग धर्म का मर्म जाने बिना ही इसके नाम पर जान लेने या देने के लिए तैयार हो जाते हैं’। हालांकि, इसमें वे आम आदमी को ज्यादा दोषी नहीं मानते। अपने इस लेख में वे आगे कहते हैं, ‘ऐसे लोग कुछ भी समझते-बूझते नहीं हैं। दूसरे लोग इन्हें जिधर जोत देते हैं,ये लोग उधर ही जुत जाते हैं’।

1919-22 के खिलाफत आंदोलन की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा था, ‘देश की आजादी के लिए वह दिन बहुत ही बुरा था जिस दिन आजादी के आंदोलन में खिलाफत, मुल्ला, मौलवियों और धर्माचार्यों को स्थान दिया जाना आवश्यक समझा गया।’

गणेश शंकर  विद्यार्थी ‘हिंदू राष्ट्र’ के नाम पर धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता के सख्त खिलाफ थे । 21 जून, 1915 को प्रताप में प्रकाशित अपने लेख में उन्होंने लिखा है, ‘देश में कहीं कहीं राष्ट्रीयता के भाव को समझने में गहरी भूल की जा रही है। हर रोज इसके प्रमाण हमें मिलते रहते हैं। यदि हम इसके भाव को अच्छे तरीके से समझ चुके होते तो इससे जुड़ी बेतुक बातें सुनने में न आतीं’।

हिंदुओं के साथ-साथ विद्यार्थी जी ने मुसलमान समुदाय को भी निशाने पर लिया। अपने लेख में वे कहते हैं, ‘ऐसे लोग जो टर्की, काबुल, मक्का या जेद्दा का सपना देखते हैं, वे भी इसी तरह की भूल कर रहे हैं। ये जगह उनकी जन्मभूमि नहीं है’। उन्होंने आगे ऐसे लोगों को अपने देश की महत्ता समझाते हुए कहा है, ‘इसमें कुछ भी कटुता नहीं समझी जानी चाहिए, यदि कहा जाए कि उनकी कब्रें इसी देश में बनेंगी और अगर वे लायक होंगे तो उनके मरसिये भी इसी देश में गाए जाएंगे।’

लोगों द्वारा गांधी जी के बातों के अंधानुकरण किए जाने पर उन्होंने लिखा, ‘गांधी जी की बातों को ले उड़ने से पहले हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह पहले उसका मर्म समझ लें। इससे उनका आशय धर्म के ऊंचे और उदार तत्वों से है।’

धार्मिक कर्मकांडों की आलोचना करते हुए वे  कहते हैं, ‘अजां देने, शंख बजाने और नमाज पढ़ने का मतलब धर्म नहीं है. दूसरों की आजादी को रौंदने और उत्पात मचाने वाले धार्मिक लोगों की तुलना में वे ला-मजहब और नास्तिक आदमी कहीं अधिक अच्छे और ऊंचे दर्जे के हैं, जिनका आचरण अच्छा है।’

गणेशशंकर विद्यार्थी उस दौर की शख्सियत थे जिस दौर में एक तबका राष्ट्रीयता पर भी सवाल उठा रहा था। ऐसे लोगों की आलोचना का सम्मान करते हुए उनका कहना था, ‘संसार की किस वस्तु में गुण-दोष नहीं है जैसे; सूर्य का प्रकाश फूलों को रंग-बिरंगा बनाता है, लेकिन किसी लाश पर उसकी गरमी पड़ते ही वह सड़कर बदबू देने लगती है…हम राष्ट्रीयता के अनुयायी हैं, पर वही हमारी सब कुछ नहीं, वह केवल हमारे देश की उन्नति का एक उपाय भर है।’

विद्यार्थी जी का मानना था कि किसी राष्ट्र का होना उसी समय संभव है, जब देश का शासन उसके सभी नागरिकों के हाथ में हो।’ सभी नागरिकों से उनका आशय हर धर्म और जाति के लोगों से था. उस समय ही उन्होंने ऐसे आजाद भारत की कल्पना की थी, जहां हिंदू ही राष्ट्र के सबकुछ नहीं होंगे। इस बारे में उनका मानना था कि किसी वजह से ऐसी मंशा रखने वाले लोग गलती कर रहे हैं और इसके जरिए वे देश को ही हानि पहुंचा रहे हैं।

पत्रकारिता के साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी सक्रिय रहने वाले गणेशशंकर विद्यार्थी के असामयिक निधन से राष्ट्रीय राजनीति के साथ-साथ हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को भी गहरी क्षति पहुंची। आज उनकी पुण्यतिथि पर कृतज्ञ राष्ट्र उन्हें नमन करता है।

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