Indira Gandhi Death Anniversary: जानें कैसे थे फिरोज गांधी और इंदिरा गांधी के रिश्ते

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लंदन में रहने के दौरान इंदिरा गांधी और फिरोज गांधी के बीच नजदिकीयां बढ़नीं शुरू हुईं और दोनों ने शादी करने का फैसला किया। मगर इंदिरा के पिता और आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू इनके रिश्ते खफा थे। जब उन्होंने इस रिश्ते को लेकर इंदिरा से नाराजगी जाहिर की तो इंदिरा ने कहा कि मैं शोर शराबे दूर अपना एक गृहस्थ जीवन बसाना चाहती हूं चहा शांति हो।

इस घटना के बाद नेहरू ने अपनी डायरी में लिखा था कि ‘वह (इंदिरा) इतनी अपरिपक्व थी। या शायद मुझे ऐसा लगता है। इसीलिए वह चीजों को सतही तौर पर देख पाती है। उसे उनकी गहराई में जाना चाहिए, इसमें वक्त लगेगा। मेरा ख्याल है कि उस पर दबाव ज्यादा नहीं देना है, वरना झटके लग सकते हैं।’

साल 1942 में इलाहाबाद में इंदिरा और फिरोज ने शादी कर ली थी। शादी के बाद रजीव गांधी ने दोनों के बड़े बेटे के रूप में जन्म लिया। शादी के कुछ वर्ष बाद जब इंदिरा राजनीति में सक्रिय होने लगीं तब फिरोज और इंदिरा के रिश्तों में दरार आने लगी। इंदिरा अब राजनीति के कारण पिता को ज्यादा वक्त देनें लगीं थी।

इसी वाकये पर इंदिरा की बायोग्राफी में पुपुल जयकर ने लिखा है, ‘पिता की जरूरतों के मद्देनजर आनंद भवन, इलाहाबाद और पति को छोड़ पिता के पास जाकर रहने का फैसला बड़ा फैसला था।’ इसके बाद दोनों के जीवन में कई उतार चढ़ाव आए और इन्ही उतार चढ़ाव के बीच 8 सितंबर 1960 को फिरोज ने दिल का दौरा पड़ने की वजह से इस दुनियां को अलविदा कह दिया। फिरोज़ की मौत के बाद इंदिरा ने एक ख़त में लिखा था कि, जब भी उन्हें फिरोज़ की ज़रूरत महसूस हुई वो उन्हें साथ खड़े दिखे।

वर्ष 1959 में जब इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष थीं उन्होंने यह तय किया कि केरल में चुनी हुई पहली कम्यूनिस्ट सरकार को पलट कर वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। ऐसा कहा जाता है कि इसके लिए आनंद भवन में चल रहे नाश्ते के वक्त इंदिरा को फ़ासीवादी कह दिया था। उस वक्त पंडित नेहरू भी वहीं मौजूद थे। इसके बाद एक स्पीच में उन्होंने लगभग आपातकाल के संकेत दे दिए थे।

फिरोज़ और इंदिरा लगभग सभी बात अलग अलग राय रखते थे। दोनों की राय बच्चों की परवरिश पर और राजनीति के बारे में बिल्कुल अलग थी।

इंदिरा गांधी की करीबी मेरी शेलवनकर ने एक इंटरव्यू में बताया था कि, “इंदिरा और मैं लगभग हर बात पर चर्चा करते थे, ये चर्चा दोस्ताना स्तर होती थी। मुझे लगता है कि हर व्यक्ति को अपनी बात रखने की आज़ादी होनी चाहिए लेकिन वो मदर इंडिया की छवि से काफी प्रेरित थीं। उन्हें अपने हाथ में पूरी ताकत चाहिए थी। वो भारत के संघीय ढ़ांचे के ख़िलाफ़ थीं। उनका विचार था कि भारत संघीय राष्ट्र बनने के लिए अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुआ है।”

वो आगे कहती हैं “फिरोज़ के विचार इससे अलग थे. 1950 के दशक के दौरान नई दिल्ली में मैं फिरोज़ से केवल दो या तीन बार ही मिली थी। मैं कभी उनके करीब नहीं आ पाई क्योंकि मुझे लगा कि इंदिरा ऐसा नहीं चाहतीं। लेकिन इंदिरा के साथ हुई मेरी चर्चाओं से मैं समझती हूं कि फिरोज़ भारत के संघीय ढ़ांचे के समर्थक थे और ताकत के केंद्रीकरण के ख़िलाफ़ थे।”

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