बेंगलुरू, 3 नवंबर (आईएएनएस)| 18वीं शताब्दी के मैसूर के शासक टीपू सुल्तान की 10 नवंबर को पड़ रही 270वीं जयंती पर प्रतिबंध लगाने और विद्यालयों के पाठ्यक्रम से उनसे संबंधित इतिहास को मिटाने के कर्नाटक सरकार के निर्णय को लेकर सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी कांग्रेस आमने-सामने आ गई हैं।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की राज्य इकाई के प्रवक्ता जी. मधुसूदन ने यहां आईएएनएस को बताया, “टीपू एक धर्माध तानाशाह था, जिसने जबरदस्ती सैकड़ों हिंदुओं को मुसलमान बना डाला था। उन सभी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए उसके जन्मदिवस को नहीं मनाया जाना चाहिए, जिन्हें टीपू और उसके जघन्य अपराधों के चलते परेशानियों का सामना करना पड़ा था या जिनकी मृत्यु इन सभी कारणों से हुई।”
राज्य में टीपू जयंती पर प्रतिबंध लगाने के लिए भाजपा को राष्ट्र विरोधी और सांप्रदायिक बताते हुए कांग्रेस ने कहा कि सत्ताधारी पार्टी एक महान शासक का अपमान कर रही है, जिसने अपने राज्य की रक्षा के लिए अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी थी।
कांग्रेस प्रवक्ता राजू गौड़ा ने कहा, “टीपू पहले स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने न केवल ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, बल्कि 1799 में मैसूर के पास श्रीरंगपट्टनम की चौथी लड़ाई में अंग्रेजों के सामने मत्था टेकने की जगह उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए थे।”
सुल्तान हैदर अली के सबसे बड़े बेटे टीपू (1750-1799) तत्कालीन मैसूर के शासक थे। उनकी मृत्यु 1799 में मैसूर से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित श्रीरंगपट्टनम के एंग्लो-मैसूर युद्ध में हुई थी। हालांकि इससे पहले भी उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ी थीं, जिसमें उन्हें जीत हासिल हुई थी।
‘टाइगर ऑफ मैसूर’ ने दक्कन क्षेत्र में अपने साम्राज्य की रक्षा और विस्तार के लिए हिंदुओं के खिलाफ भी लड़ाई लड़ी थी।
जब से तत्कालीन कांग्रेस सरकार (2013-18) ने साल 2015 के नवंबर से टीपू सुल्तान की बहादुरी और देशभक्ति की भावना के लिए उनकी जयंती को एक आधिकारिक कार्यक्रम के रूप में मनाना शुरू किया, तब से भाजपा ने कई विरोध प्रदर्शन किए और जुलूस निकाले।
भाजपा उस वक्त विपक्ष में थी। ये विरोध प्रदर्शन खासकर पुराने मैसूर क्षेत्र के कोडागु में किए गए, जहां 1782-1799 तक 17 साल के शासनकाल में सैकड़ों की तादात में कोडावास को अत्याचारों का सामना करना पड़ा था।
मधुसूदन ने स्मरण करते हुए कहा, “कांग्रेस ने अल्पसंख्यकों को खुश करने और वोट बैंक की राजनीति में लिप्त होने के चलते जानबूझकर टीपू जयंती को पुनर्जीवित किया। महज मुसलमानों के प्रति प्यार दिखाने के लिए, तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने हमारी अपीलों को नजरअंदाज कर दिया और हिंदुओं की भावनाओं को आहत किया, जिनके पुरखों को अत्याचारी शासक टीपू की अवहेलना करने और उनके जबरन धर्मातरण का विरोध करने के लिए अपनी जान गंवानी पड़ी थी।”
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