जन्मदिन विशेष : उस्ताद बड़े गुलाम अली खान, जो लता मंगेश्कर के गुरु भी थे!

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पटियाला घराने के उस्ताद बड़े गुलाम अली खां की गायकी और उनकी शख्सियत को शब्दों में समेटना बेहद मुश्किल काम है। उनका परिचय संगीत के एक ऐसे साधक, एक ऐसे विद्वान और दिग्गज गायक के रुप में है जिनका लोहा आने वाली पीढ़ियां भी मानती रहेंगी। शायद कम ही लोगों को पता होगा कि उस्ताद लता मंगेश्कर के गुरु भी थे।

घर से मिली संगीत की तालीम

बड़े गुलाम अली खान का जन्म 2 अप्रैल 1902 में पंजाब प्रांत के कसूर में हुआ था जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है। उनके  पिता अली बक्श खान भी उस दौर के जाने-माने गायक थे। छोटी सी उम्र से ही तालीम की शुरुआत हो गई। 7 साल की उम्र में उन्होंने अपने चाचा काले खान से सारंगी और गाना दोनों सीखना शुरू किया। उस्ताद काले खान भी जाने-माने गायक और कंपोजर थे। खान साहब ने पटियाला घराने के उस्ताद अख्तर हुसैन खान और उस्ताद आशिक अली खान से भी संगीत की तालीम ली।

21 साल की उम्र में बड़े गुलाम अली खान बनारस आ गए, सारंगी पर संगत करने के साथ उन्होंने छोटे मोटे समारोहों में गाना शुरू कर दिया। कहते हैं कोलकाता में उनका एक बड़ा कॉन्सर्ट हुआ जिसके बाद उन्हें बड़ी पहचान मिल गई थी। लोग उनके गले का जादू देख और सुन चुके थे।

ठुमरी गायकी में मशहूर थे उस्ताद

उस्ताद बड़े गुलाम अली खान खयाल, ध्रुपद, ठुमरी सब कुछ गाते थे लेकिन वो सबसे ज्यादा मशहूर हुए ठुमरी के लिए। ‘का करूं सजनी आए न बालम’, ‘याद पिया की आए’, ‘प्रेम जोगन बन के’, ‘नैना मोरे तरस रहे’, ‘कंकर मार जगाए’ इनमें से कोई न कोई ठुमरी आपके कानों में जरूर पड़ी होगी। बड़े गुलाम अली खान की आवाज़ में ये ठुमरियां अमर हो चुकी हैं। खान साहब बड़े गुलाम अली खान खयाल, ध्रुपद, ठुमरी सब कुछ गाते थे लेकिन वो सबसे ज्यादा मशहूर हुए ठुमरी के लिए। खान साहब की गाई ठुमरी ‘का करूं सजनी’ तो इतनी पॉपुलर हुई कि इसका आसान वर्जन यसुदास से गवाकर फिल्म-स्वामी में इस्तेमाल किया गया।

उस्ताद का व्यक्तित्व और सूर

उस्ताद बड़े गुलाम अली खान के गले से जब सुर निकलते थे तो हर कोई उनके जादू में सराबोर हो जाता था। उनका रौबीला चेहरा, बड़ी बड़ी मूंछें, पहलवान जैसा हट्ठा-कट्ठा शरीर और पेट पर टिका हुआ सुरमंडल देख कर यकीन करना मुश्किल ही होता था कि इस शख्स का मौसीकी से कोई नाता होगा, लेकिन ऐसी मुलायमियत, ऐसी लोच, तीनों सप्तकों में फर्राटे से दौड़ती ऐसी मीठी आवाज़ कि सुनने वालों की आह निकल जाए।

कहा जाता है कि सरकार की ओर से उन्हें मुंबई के मालाबार हिल्स में समंदर के पास एक बंगला भी दे दिया गया था। लेकिन उनका ज्यादातर वक्त लाहौर, बांबे, कलकत्ता और हैदराबाद में घूमते हुए बीता। बड़े गुलाम अली की आवाज़ और उनकी लोकप्रियता देखकर कई फिल्म निर्माताओं ने उन्हें अपनी फिल्म में गवाना चाहा लेकिन खान साहब इनकार करते रहे। फिल्म मुगल-ए-आज़म में दो राग आधारित गाने गाने के लिए निर्माता के. आसिफ ही थे जो उन्हें किसी तरह राजी कर पाए थे।

‘सबरंग’ नाम से उन्होंने अनगिनत बंदिशों की भी रचना की। अलग अलग प्रांतों में गाए जाने वाले लोक संगीत से कैसे शास्त्रीय रागों की रचना हुई, इस पर खान साहब का जबरदस्त अध्ययन था। लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत का रिश्ता बताते हुए ही वो राग पहाड़ी में एक रचना गाते थे- हरि ओम तत्सत। ये बड़े गुलाम अली खान की कालजयी और अमर रचना है जो ये भी बताती है कि मौसीकी का मजहब दुनियावी मजहब के कहीं ऊपर होता है।

पूरी दुनिया में हैं उस्ताद के चाहने वाले

उस्ताद खान साहब की गायकी में पटियाला कसूर घराने के अलावा जयपुर और ग्वालियर घराने की भी झलक मिलती थी। राग को लेकर खान साहब का अध्ययन और तैयारी ऐसी थी कि एक राग को घंटों गा सकते थे लेकिन उन्होंने हमेशा अपनी प्रस्तुति को छोटा और दिलचस्प रखा, हमेशा सुननेवालों को ध्यान में रखकर गाया और यही वजह है कि उनके चाहने वाले हिंदुस्तान और पाकिस्तान से लेकर पूरी दुनिया में फैले हुए हैं।

पद्मभूषण और संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड से सम्मान

भारत सरकार की ओर से 1962 में खान साहब को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड से भी नावाजा गया। ये खान साहब का अपने हुनर और चाहने वालों को लेकर समर्पण था कि उन्होंने पुरस्कार और पदवियों से ज्यादा तवज्जों हमेशा अपने चाहने वालों के प्यार को दिया। हैदराबाद के बशीरगढ़ पैलेस में 1968 में खान साहब ने दुनिया को अलविदा कह दिया। अपने आखिरी दिनों में वे लंबी बीमारी के बाद पैरालिसिस के शिकार हो गए थे। लेकिन आज भी देश और विदेश में उस्ताद के करोड़ो चाहने वाले हैं जिनकी यादों में उस्ताद आज भी अमर  हैं।

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