‘मी टू’ पर अधिवक्ता बोलीं-सोया है समाज!

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 नई दिल्ली, 22 अक्टूबर (आईएएनएस)| ‘मी टू’ अभियान भारत में दिनोदिन जोर पकड़ता जा रहा है। यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाएं मुखर होकर मीडिया के सामने आपबीती सुना रही हैं और सुनने वाले सफेदपोशों के चेहरे से नकाब उतरता देख रहे हैं और हर नए खुलासे पर चौंक रहे हैं।

  दुनिया ने देखा कि इस अभियान की ताकत भांपकर दुनिया की सैर कर लौटे हमारे विदेश राज्यमंत्री एम.जे.अकबर को पद से इस्तीफा देना पड़ा है।

आलम यह है कि अभिनेत्री व महिला अधिकारों की पैरोकार नंदिता दास के पिता प्रख्यात चित्रकार जतिन दास पर भी निशा बोरा नाम की एक महिला ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया है। फिल्म, मीडिया व दूसरे क्षेत्रों की महिलाओं ने भी अपनी आवाज बुलंद की है। यौन उत्पीड़न का आरोप नाना पाटेकर, आलोकनाथ, सुशांत सिंह राजपूत, निर्देशक साजिद खान व संगीतकार अनु मलिक सहित अन्य कई जाने-पहचाने बड़े लोग झेल रहे हैं।

मी टू के इस दर्दबयानी के बीच आईएएनएस ने सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता व लीगल एक्टिविस्ट कमलेश जैन से इस अभियान का कानूनी पक्ष व इससे जुड़े दूसरे तथ्य जानना चाहा तो उन्होंने कहा, “मैं मी टू को एक बहुत अच्छी पहल मानती हूं, क्योंकि ज्यादातर महिलाएं यौन हिंसा, उत्पीड़न की शिकार होती हैं। घर में, बाहर सड़कों पर, कार्यस्थलों पर ट्रेन में, बस में हर जगह। अभी तक हम महिलाएं इसको दबाती आई थीं। पुरुष गलत होते हुए भी बच जाता था और पीड़ित होते हुए भी महिला ‘गलत’ व ‘गंदी’ मानी जाती थी और जीवनभर के लिए अपनी ही नजरों में गिर जाती थी। वह समाज के डर से इसे छिपाए रखती थी। यह बहुत ही अच्छा व सही अभियान है।”

यह अभियान अमेरिका में 2017 में शुरू हुआ और उसके बाद अब इसने हिंदुस्तान में भी जोर पकड़ लिया है। इंटरनेट व इलेक्ट्रॉनिक गजट के कारण पूरी दुनिया एक ग्लोबल विलेज बन गई है और यही वजह है कि इस अभियान को बल मिला है।

यह बात छेड़ने पर कि ‘मी टू’ को भारत आने में एक साल लग गया, कमलेश जैन कहती हैं, “भारत में आने में एक साल लगा है तो इसे अभी बहुत जल्दी ही कहेंगे, वरना यहां आते-आते इसे 50 साल लग जाते। उसका जल्दी आना मीडिया की वजह से संभव हुआ है। समाज तो इन चीजों को पकड़ता ही नहीं है। सोया हुआ समाज है हमारा। थोड़ी बहुत ज्यूडिशियरी जगी है।”

उन्होंने कहा, “ज्यूडिशियरी यानी न्यायपालिका ने महिलाओं को बहुत से अधिकार दिए हैं, तब जाके उनमें हिम्मत आई है मी टू जैसा अभियान छेड़ने का । जस्टिस सुजाता मनोहर व दो अन्य जजों की विशाखा गाइडलाइंस। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को लेकर 1997 में दिशानिर्देश देने में उनकी प्रमुख भूमिका रही। 1997 में जब गाइडलाइंस आ गईं तो उसके बाद 2013 में हमारा एक्ट बना। सुस्ती देखिए कि एक्ट बनने में करीब 16 साल लग गए। हां, इसे ज्यूडिशियरी से संसद पहुंचने में 16 साल लग गए। उस हिसाब से तो मी टू जल्दी आया है। सोचिए कितनी सुस्ती है हमारे समाज में।”

यह पूछे जाने पर कि क्या यौन उत्पीड़न को साबित करने के लिए साक्ष्य जरूरी हैं? कमलेश जैन कहती हैं, “देखिए, यौन उत्पीड़न के मामले में अब सिर्फ पीड़ित का बयान जरूरी है, उसका स्टेटमेंट (बयान) ही काफी है। किसी यंग लड़की का रेप हुआ तो उसमें इविडेंस क्या होगा। पहले पीड़िता को प्रूव करना होता था, अब अपराधी को डिफेंड करना होता है। ज्यूडिशियरी ने कहा है कि स्टेटमेंट पर मामला दर्ज हो सकता है। सजा हो सकती है। यौन उत्पीड़न के मामले में अब साक्ष्य जरूरी नहीं है। अपराधी खुद को डिफेंड करे। पीड़िता को कुछ साबित करने की जरूरत नहीं है।”

क्या यौन उत्पीड़न के दायरे को बढ़ाने की जरूरत है? इस सवाल पर अधिवक्ता कहती हैं, “उत्पीड़न का दायरा तो अब काफी बढ़ा है। यह दायरा 2012 से, निर्भया मामले के बाद से बढ़ाया गया है। रेप के मामलों में तो टाइम लिमिट (समय सीमा) खत्म कर दी गई है। जस्टिस सुजाता मनोहर ने कहा था कि यौन उत्पीड़न के मामलों में भी समय सीमा खत्म करने की जरूरत है। अभी के मी टू अभियान को देखते हुए कानून को त्वरित रूप से न्याय में संशोधन करना होगा, जिसमें इविडेंस एक्ट, सीआरपीसी व टाइम लिमिट रेप की तरह इसमें भी खत्म किया जाए।”

कमलेश जैन कहती हैं कि अभी तो कार्यस्थल (वर्किं ग प्लेस) के यौन उत्पीड़न के मामले ही सामने आए हैं। घरों में जो हो रहे हैं, वे भी अभी बाहर आने हैं। जैसे मान लीजिए, बचपन में मेरे किसी रिश्तेदार ने कुछ किया तो जब पीड़ित बड़ी हो जाए, जब वह बोलना चाहती हो, जब वह सशक्त हो जाए तो उसे बोलने दिया जाए। पांच साल, तीन साल की लड़की-लड़कों का यौन उत्पीड़न हो रहा है..तो जब बच्चे की पर्सनैलिटी विकसित हो जाए, जब वह बोलना चाहे तो उस पर विश्वास किया जाए। वह सशक्त हो जाए तो उसे अपनी आवाज उठाने दिया जाए।

अधिवक्ता ने कहा, “दरअसल, होता क्या है कि पीड़िता जब कुछ कहना चाहती है तो समाज उसकी गर्दन तलवार के धार पर रख देता है। वह अदालत में जाती है, तब भी उसे दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं। जस्टिस सुजाता मनोहर ने कहा था कि विशाखा गाइडलाइंस में मौजूदा परिस्थितियों का इमेजिनेशन नहीं किया गया है, लिहाजा आईपीसी में संशोधन हो और रेप की तरह यौन उत्पीड़न में भी टाइम लिमिट खत्म हो।”

यह पूछे जाने पर कि मी टू की लड़ाई जब अदालत पहुंच रही है, तब इसका भविष्य क्या होगा? लीगल एक्टिविस्ट ने कहा, “देखिए, इसका भी रास्ता है। अभी पास इवेंट्स (बीती हुई घटनाओं) के लिए कानून नहीं आया है, लेकिन फिर भी इविडेंस की जहां तक बात है तो यौन उत्पीड़न का इविडेंस नहीं हो सकता। कोर्ट में एक प्रणाली है झूठ व सच की जांच के लिए, जिसे सेपरेट द ग्रेन फ्रॉम चैफ (गेहूं को भूसे से अलग करना) कहते हैं। इसी अधार पर यहां भी सच व झूठ को अलग किया जाता है। यह साइंसटिफिक प्रणाली है। इसमें एक्जामिनेशन ऑफ चीफ कम्पलेनेंट और फिर क्रॉस एक्जामिनेशन ऑफ एक्यूज्ड का किया जाता है। ऐसे एक्ट हैं, इविडेंस एक्ट के तहत सच व झूठ को अलग किया जा सकता है। इस एक्जामिनेशन में दोनों पक्षों के वकील व न्यायाधीश शामिल होते हैं।”

महिला वकीलों के संदर्भ में मी टू को आप किस तरह देखती हैं? इस सवाल पर कमलेश जैन ने कहा, “मैं स्वीकार करती हूं कि महिला वकीलों, इंटर्न व कानून के विद्यार्थियों में भी मी टू के मामले आते हैं। बहुत बड़े-बड़े लोगों द्वारा उनका यौन उत्पीड़न किया गया है। यह बेहद घिनौनी चीज है। कानून के जानकार अपने इंटर्न कानून की छात्राओं व अपने मातहत आने वाली महिला वकीलों का शोषण व उत्पीड़न करते हैं। यहां तक कि कई महिला ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट भी इससे बची नहीं हैं। लेकिन सही मंच न मिलने और सुनवाई नहीं होने से महिला वकीलों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। शुरुआत में महिला वकीलों को काफी दिक्कत होती है।”

क्या पुरुष प्रधान समाज को मी टू अभियान से खतरा महसूस हो रहा है? इस सवाल पर वह कहती हैं, “हां, हो रहा है, बिल्कुल हो रहा है। यह अभियान अपने लॉजिकल कन्क्लूजन पर पहुंचे तो निश्चित ही एक बेहतर नतीजा आएगा। पनिशमेंट (सजा) तीन तरह की होती है। सोशल, इकोनॉमिकल व पीनल (दंड)। इस अभियान की वजह से एम.जे.अकबर को मंत्री पद छोड़ना पड़ा। कई पत्रकारों ने नौकरी से इस्तीफा दिया। फिल्म संगीतकार अनु मलिक इंडियन आइडल जज पैनल से बाहर हुए। ऐसे में पुरुष समाज में डर तो पैदा हो रहा है।”

मी टू के ज्यादातर मामले अभी कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से जुड़े हैं। ऐसे में विशाखा गाइडलाइंस से इन पर क्या कार्रवाई की जा सकती है? इस सवाल पर कमलेश जैन कहती हैं कि इन मामलों में कार्रवाई करते हुए आरोपियों को जॉब से हटाया जा सकता है। इनका ट्रांसफर किया जा सकता है। आरोप के अनुसार कार्रवाई की जा सकती है। इस तरह से फाइनेंशियल डैमेज पक्का है। व्यक्ति से जुड़े घर परिवार को भी दिक्कतें हो सकती हैं, लेकिन निजी संस्थान अक्सर इन मामलों को दबा देते हैं।

मी टू को लेकर नई पीढ़ी को आप कैसे देखती हैं? यह पूछने पर अधिवक्ता कहती हैं कि नई पीढ़ी काफी जागरूक है। अपनी बात रखने को लेकर मुखर है, लेकिन इस तरह के मामलों में घर, परिवार व समाज को ज्यादा भूमिका निभानी होगी और महिलाओं के साथ होने वाले अन्याय को सामने रखने का हौसला व प्रेरणा देनी होगी।

महिलाओं की आवाज अक्सर घर, परिवार, लोक-लाज व सामाजिक वर्जनाओं में दब जाती है। इस पर आप क्या कहेंगी? इस सवाल पर कमलेश जैन ने दो टूक कहा कि महिलाओं को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी, दूसरे तो सिर्फ सहयोग कर सकते हैं। समाज व घर-परिवार में महिलाएं प्रमुख भूमिका निभाती हैं। भले ही पहचान न मिले, लेकिन उन्हें अपनी पहचान खुद बनानी होगी।

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