कश्मीर के बारे में कहा गया है, “गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त/ हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त” यानि धरती पर अगर कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यही हैं।
कश्मीर दुनिया भर में अपनी ख़ूबसूरती और खानपान की विशिष्ट एवं समृद्ध संस्कृति के लिए जाना जाता है। मगर एक अरसे से पृथ्वी का स्वर्ग कहलाने वाले कश्मीर की हालत अब इतनी खराब होती जा रही है कि कोई उसके स्याह पहलू पर बात नहीं करना चाहता। कुछ अरसे से फिल्मकार कश्मीर के प्रति संवेदनशील हुए हैं और वहां के हालात को संजीदगी से दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। हामिद और नोटबुक जैसी कश्मीरी पृष्ठभूमि वाली फिल्मों के बाद निर्देशक अश्विन कुमार ‘नो फादर्स इन कश्मीर’ लेकर हैं। ये फिल्म घाटी में गायब या आर्मी द्वारा घर से उठा लिए गए लोगों की दास्तान को दिल छूने वाले अंदाज में बयान करती है।
“मुझे सीधी जंग दीजिए। एक ऐसा दुश्मन, जिसे मैं देख सकूं। यहां रहने वाला हर एक बंदा दुश्मन है और हमवतन भी। किससे लडूं और किसकी हिफाज़त करूं?”
ये डायलॉग इसी फिल्म का है। कश्मीर में पोस्टेड एक आर्मी ऑफिसर की कही एक बात आपके दिल को छू लेगी। फिल्म की पूरी कहानी नूर (जारा वेब) के नजरिए से दिखाई गई है। 16 साल की नूर लंदन से अपनी मां (नताशा मागो) और होने वाले सौतेले पिता के साथ अपनी पैदाइशी जमीन कश्मीर में आती है। उसे बताया गया था कि उसके अब्बा उसे छोड़ गए थे, मगर कश्मीर में दादी (सोनी राजदान) और दादा (कुलभूषण खरबंदा) के पास आने के बाद उसे पता चलता है कि उसके पिता गायब हो गए थे। उसकी मुलाकात अपने ही हमउम्र माजिद (शिवम रैना) से होती है। नूर की तरह उसका अब्बा भी गायब है। अपने अब्बा के अतीत को खंगालती नूर अर्शिद (आश्विन कुमार) से टकराती है, जो उसका और माजिद के अब्बा का जिगरी यार था। अपने अब्बा को तलाशते हुए नूर को कश्मीर की कई कड़वे सच का सामना करना पड़ता है। जहां उसे अहसास होता है कि कश्मीर के गायब हुए मर्दों के कारण औरतों की हालात न तो विधवा जैसी है और न ही सधवा जैसी। वह कश्मीरी औरतों की रोटी के जुगाड़ की मजबूरी से भी गुजरती है। इस सफर में उसका साथी बनता है माजिद।
माजिद और नूर को एक-दूसरे से प्यार हो जाता है। नूर अपने अब्बा की कब्र को ढूंढते हुए माजिद को कश्मीर के उस प्रतिबंधित इलाके में ले जाती है, जहां आम लोगों का जाना मना है। जंगल और घाटी के इस रोमांचक सफर में नूर और माजिद रास्ता भटक जाते हैं और जब सुबह उनकी आंख खुलती है, तो खुद को आर्मी की गिरफ्त में पाते हैं। आर्मी के लोग उन्हें आतंकवादी मानकर टॉर्चर करते हैं। नूर तो अपनी ब्रिटिश नागरिकता के कारण वहां से निकल जाती है, मगर हामिद वही रह जाता है। क्या वह हामिद को निर्दोष साबित करके वहां से निकाल पाएगी या हामिद भी अपने पिता की तरह गुमशुदा लोगों की फेहरिस्त में शामिल हो जाएगा ? यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।
फिल्म में निर्देशन की बात करें तो निर्देशक अश्विन कुमार की कहानी में कई परतें हैं, जो कश्मीर की जटिलता के साथ-साथ मानवीय रिश्तों और उनकी मजबूरी की गांठों को भी दर्शाती है। फर्स्ट हाफ में नूर के नजरिए और खोजबीन के कारण कहानी स्लो हो जाती है, मगर सेकंड हाफ में कहानी अपना सुर पकड़ लेती है। कैमरा वर्क थोड़ा जर्की है और कई जगहों पर ग्रेन्स भी नजर आते हैं, मगर यह फिल्म के टोन को पकड़े रखता है। लाइटिंग में जिस सिलेटी रंग को रखा गया है, वह कश्मीर की वादियों की उदासी को बखूबी दर्शाता है।
फिल्म के दोनों लीड किरदारों जारा वेब और शिवम रैना ने लाजवाब अभिनय किया है। नूर का किरदार एक ऐसी किशोर लड़की का चरित्र है, जो अपने अब्बा के अतीत के साथ कई सवालों के जवाब ढूंढ रही है और उसकी आंखों में वो जिज्ञासा और बेचैनी खूब झलकती है। उसने अपने मासूम अभिनय से चरित्र की नादानी को बहुत ही खूबसूरती से निभाया है। माजिद के रूप में शिवम रैना ने अपनी भूमिका को यादगार बनाया है। दादा के रूप में कुलभूषण खरबंदा ने सधी हुई परफॉर्मेंस दी है। सोनी राजदान के हिस्से में ज्यादा सीन नहीं आए हैं, इसके बावजूद उन्होंने दमदार परफॉर्मेंस दी है। नताशा मागो, अंशुमन झा, माया सराओ, सुशील दाहिया ने अपने किरदारों के अनुरूप अभिनय किया है। अश्विन कुमार ने फिल्म में अर्शिद के अहम किरदार के साथ न्याय किया है।
फिल्म क्यों देखें
अगर आप कश्मीर के हालात देखना चाहते हैं, उसे समझना चाहते हैं साथ ही आपको रियलिस्टिक फिल्में पसंद हैं तो इस फिल्म को जरूर देखें।
आपको बता दें कि निर्देशक अश्विन कुमार इससे पहले इंशाअल्लाह फुटबॉल और इंशाअल्लाह कश्मीर बना चुके हैं। उनकी शॉर्ट फिल्म लिटल टेररिस्ट को ऑस्कर का नॉमिनेशन भी मिला था।
This post was last modified on April 5, 2019 2:06 PM
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