Muharram 2019: इस्लामिक कैलेंडर के पहले महीने का नाम ‘मुहर्रम’ होता है। इस महीने से इस्लाम धर्म मानने वालों का नया साल शुरू हो जाता है। मान्यता है कि इस महीने की 10 तारीख को इमाम हुसैन की शहादत हुई थी, जिसके चलते इस दिन को रोज-ए-आशुरा (Roz-e-Ashura) कहते हैं। इस्लाम में मुहर्रम (Muharram) का यह सबसे अहम दिन माना गया है। इस दिन जुलूस निकालकर हुसैन की शहादत को याद किया जाता है। 10वें मुहर्रम पर रोज़ा रखने की भी परंपरा है। इस बार मुहर्रम का महीना 1 सितंबर से 28 सितंबर तक है। इस लिहाज से 10वां मुहर्रम 10 सितंबर को है।
आज से लगभग 1400 वर्ष पूर्व तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी। ये जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी। इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथी शहीद हो गए थे।
मुआविया नाम के शासक के इंतकाल के बाद उसकी विरासत उनके बेटे यजीद को मिली। यजीद इस्लाम मजहब को अपने तरीके से चलाना चाहता था और अल्लाह पर उसका कोई विश्वास नहीं था। यजीद ने पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को उसके मुताबिक चलने को कहा और खुद को उनके खलीफे के रूप में अपनाने का आदेश दिया। यजीद को लगता था कि अगर इमाम हुसैन उसे अपना खलीफा मान लेंगे तो इस्लाम और इस्लाम के मानने वालों पर वह राज कर सकेगा।
लेकिन हुसैन को ये कतई मंजूर नहीं था। उन्होने यजीद को अपना खलीफा मानने से साफ इंकार कर दिया। ये बात यजीद को बर्दाश्त नहीं हुई। उसने इमाम हुसैन के खिलाफ साजिश करनी शुरू कर दी। इसी दौरान इराक की राजधानी बगदाद से करीब 120 किलोमीटर दूर कर्बला के पास यजीद ने इमाम हुसैन के काफिले को घेर लिया और खुद को खलीफा मानने के लिए उन्हें मजबूर किया।
इमाम हुसैन ने यजीद को खलीफा मानने से इंकार कर दिया। इसके बाद यजीदी सेना ने हुसैन के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। यजीदी सेना बहुत ताकतवर थी। उनके पास हथियार, खंजर और तलवारें थीं, जबकि हुसैन के काफिले में सिर्फ 72 लोग ही थे। बादशाह यजीद ने अपनी सत्ता कायम करने के लिए हुसैन और उनके परिवार वालों पर जुल्म किया और 10 मुहर्रम को उन्हें बेरहमी से मौत के घाट उतार दिया। इस जंग में हुसैन के 6 महीने के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम को भी यजीदी सेना ने मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद यह धर्म युद्ध इतिहास के पन्नों पर हमेशा-हमेशा के लिए दर्ज हो गया।
इसी के चलते मुस्लिम समुदाय इस महीने को गम के तौर पर मनाता है। हुसैन की इसी कुर्बानी की याद में मुहर्रम की 10 तारीख को मुसलमान अलग-अलग तरीकों से अपने गम का इजहार करते हैं। सुन्नी लोग अपना गम जाहिर करने के लिए मातम मनाते हुए मजलिस पढ़ते हैं। वहीं शिया लोग मुहर्रम का चांद दिखाई देते ही गम में डूब जाते हैं। शिया महिलाएं और लड़कियां चांद निकलने के साथ ही अपने हाथों की चूड़ियों को तोड़ देती हैं। इतना ही नहीं वे श्रृंगार की चीजों से भी पूरे 2 महीने 8 दिन के लिए दूरी बना लेती हैं। मुहर्रम का चांद दिखने के बाद से ही सभी शिया मुस्लिम पूरे 2 महीने 8 दिनों तक शोक मनाते हैं। इस दौरान वे किसी जश्न के मौके में भी शामिल नहीं होते हैं।
मुहर्रम (Muharram) के दिन कई जगहों पर ताजिया भी निकाली जाती है। खास बात ये है कि ताजियादारी की प्रथा भारत से ही शुरू हुई थी। इसकी शुरुआत बरसों पहले तैमूर लंग बादशाह ने की थी, जिसका ताल्लुक शिया संप्रदाय से था। तब से भारत के शिया-सुन्नी और कुछ क्षेत्रों में हिन्दू भी ताजियों (इमाम हुसैन की कब्र की प्रतिकृति, जो इराक के कर्बला नामक स्थान पर है) की परंपरा को मानते या मनाते आ रहे हैं।
दरसल, तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और विश्व विजय उसका सपना था। तैमूर लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ तैमूर लंगड़ा होता है। वह दाएं हाथ और दाए पांव से पंगु था। साल 1336 में समरकंद के नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया था। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन गया। फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीतते हुए तैमूर भारत (1398) पहुंचा। उसके साथ 98000 सैनिक भी भारत आए। दिल्ली में महमूद तुगलक से युद्ध कर अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को सम्राट घोषित किया।
तैमूर लंग मुहर्रम महीने में हर साल इराक जरूर जाता था, लेकिन बीमारी के कारण एक साल नहीं जा पाया। हृदय रोग से पीड़ित होने के कारण हकीमों ने उसे सफर के लिए मना किया था। बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने उस जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला में बने इमाम हुसैन के कब्र की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया।
कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से ‘कब्र’ का ढांचा तैयार किया। इसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस ताजिए को पहली बार 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल परिसर में रखा गया। तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु इन ताजियों की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की अन्य रियासतों में भी इस परंपरा की शुरुआत हो गई।
This post was last modified on September 10, 2019 10:32 AM
नवीन शिक्षण पद्धतियों, अत्याधुनिक उद्यम व कौशल पाठ्यक्रम के माध्यम से, संस्थान ने अनगिनत छात्रों…
इतिहासकार प्रोफ़ेसर इम्तियाज़ अहमद ने बिहार के इतिहास पर रौशनी डालते हुए बताया कि बिहार…
अब आवेदन की तारीख 15 जुलाई से 19 जुलाई तक बढ़ा दी गई है।
पूरे दिल्ली-NCR में सर्विस शुरु करने वाला पहला ऑपरेटर बना
KBC 14 Play Along 23 September, Kaun Banega Crorepati 14, Episode 36: प्रसिद्ध डिजाइनर्स चार्ल्स…
राहुल द्रविड़ की अगुवाई में टीम इंडिया ने 1-0 से 2007 में सीरीज़ अपने नाम…