उत्तर प्रदेश की राजनीति में वर्ष 2018 की शुरुआत से ही उथल-पुथल मची हुई है। सबसे पहले फरवरी में खबर आनी शुरू हुई कि सपा बसपा शायद उपचुनाव में साथ मिल कर लडें, यह खबर अपने आप में ही हैरत की बात थी क्योंकि यूपी में सपा-बसपा के साथ होने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। लेकिन ये कल्पना हकीकत बनी और सपा-बसपा के साथ ने चमत्कार कर दिया और सपा ने भाजपा के अभेद्य दुर्ग गोरखपुर के साथ-साथ फूलपुर को भी जीत लिया। अखिलेश यादव जीत के बाद बाकायदा फूलों का गुलदस्ता लिए हुए बधाई देने मायावती के घर पहुँचे और ये दो दशकों में सपा के किसी बड़े नेता की मायावती से पहली मुलाकात थी। इसके बाद सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने राष्ट्रीय लोक दल के जयंत चौधरी को साथ लेते हुए कैराना और नूरपुर के उपचुनावों में भी भाजपा को पटखनी दी। इन सब चुनावों में एक और बात ध्यान देने योग्य है कि पूरी यूपी सरकार इन चुनावों को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़े हुए थी, मुख्यमंत्री से लेकर दर्जा प्राप्त मंत्रियों तक कोई भी ऐसा नहीं बचा था जिसने चुनाव प्रचार में भाग ना लिया हो। आरएसएस और भाजपा संगठन के नेताओं की तो बात छोडिये खुद प्रधानमंत्री मात्र 9 किलोमीटर बनी सड़क का लोकार्पण करने के बहाने कैराना उपचुनाव के एक दिन पहले कैराना के सीमावर्ती क्षेत्रों तक रोड शो किए और मंच से मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किए लेकिन नतीजा शून्य रहा और भाजपा को हार मिली।
इसके बाद जो हैरान करने वाली खबर थी वो थी अखिलेश यादव का ये बयान कि भाजपा को हराने के लिए यदि सपा को कम सीटों पर भी लड़ना पड़ा तो वो ये क़ुरबानी देने को तैयार हैं। इसके बाद ये बात उठनी शुरू हो गयी कि क्या सपा यूपी में बसपा की जूनियर पार्टनर बनने को तैयार है?
कौन कितनी सीट पर लड़ेगा?
आप यूपी भाजपा के किसी भी पदाधिकारी से सपा-बसपा गठबंधन पर बात करिए वो आपको यही कहता हुआ मिल जायेगा कि उपचुनाव अलग बात थी किन्तु जब आमचुनाव होंगे तो सीटों के बँटवारे के मुद्दे पर सपा बसपा का गठबंधन बिखर जायेगा। लेकिन उनकी मनोकामना पूरी होने की उम्मीद कोई दिख नहीं रही है और इसके पीछे कारण है सपा बसपा नेतृत्व की फुलप्रूफ तैयारी। ऊपर से भले ही सबकुछ शांत दिख रहा परन्तु भीतर तैयारियां जारी हैं। सपा और बसपा के नेताओं से बात करने पर और रामगोपाल यादव के एक पुराने बयान का विश्लेषण करने पर जो बात निकल कर सामने आती है उसके अनुसार संभवतः गठबंधन का वही फ़ार्मुला बने जो 1993 में लागू हुआ था। यानी कि जो जिस सीट पर विजेता है और जिस सीट पर बाकी सहयोगियों से आगे है वहां वो चुनाव लड़ेगा। इस फ़ार्मुला के हिसाब से सपा का 36, बसपा का 34, कांग्रेस का 8 तथा रालोद व आप का 1-1 सीट पर दावा बनता है। पर बात इतनी सीधी भी नहीं है, पेंच फंस रहा है कांग्रेस का, क्या कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होते हुए भी मात्र 8 सीट पर लड़ेगी? अब सवाल उठता है कि जब फ़ार्मुला यही है तो अखिलेश के उस बयान का मतलब क्या है कि सपा कम सीटों पर भी लड़ने को तैयार है?
आखिर अखिलेश के बयान का मतलब क्या है?
यूपी की राजनीति को कवर करने वाला शायद ही कोई ऐसा पत्रकार हो जो ये ना जानता हो कि अखिलेश यादव संकेतों की भाषा ज्यादा बोलते हैं। उनके इस बयान में भी दो संकेत छुपे है। दरअसल एक तो वो ये चाहते हैं कि यूपी की जनता को और विशेषकर बसपा के वोटर्स को ये लगता रहे कि गठबंधन में कोई दिक्कत नहीं है और गठबंधन होना तय है। और दूसरा जो सबसे महत्वपूर्ण है वो ये कि “समाजवादी पार्टी यूपी की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होते हुए भी भाजपा को हराने के लिए त्याग करने को तैयार है और बसपा से बराबर बराबर सीटों पर भी चुनाव लड़ने को तैयार है।”
इतना तो हर कोई जानता है कि सपा-बसपा का ये गठबंधन भाजपा को सत्ता से हटाने और फिर से कमजोर करने के उद्देश्य से है और इस लक्ष्य की प्राप्ति में न तो सपा और न ही बसपा चाहेंगी कि उन दोनों में से कोई एक दूसरे के पीछे दिखे, ये रास्ता साथ चलने का है न कि पीछे चलने का। तृतीय मैसूर युद्ध में निज़ामों और मराठों की मदद से टीपू सुल्तान को हराने के बाद कार्नवालिस ने श्रीरंगपट्टनम की संधि कुछ ऐसी चालाकी से की थी कि उसने बाद में अँग्रेज़ी हुकूमत को लिखा भी था कि “हमने अपने दुश्मन को हरा दिया है और साथ ही साथ अपने दोस्तों को मजबूत भी नहीं होने दिया है। कुछ ऐसी ही चालाकियां इस महागठबंधन में भी होंगी, जहां दुश्मन भाजपा को हराना भी है और अपने दोस्तों को खुद से मजबूत भी नहीं होने देना है।
गठबंधन में सपा-बसपा कांग्रेस से क्या चाहते हैं?
सपा में नेताओं के एक बड़े वर्ग का मानना है कि गठबंधन में कांग्रेस के होने से नुकसान होगा क्योंकि तब सवर्ण वोट जो कांग्रेस को मिलने होते हैं वो भी भाजपा में चले जाते हैं, इसीलिए बेहतर ये होगा कि कांग्रेस अकेले चुनाव लड़े और भाजपा का वोट काटे। लेकिन अखिलेश यादव इसे समाजवादी पार्टी के लिए यूपी से बाहर प्रसार होने के लिए एक मौके के रूप में देख रहे हैं और वो कांग्रेस से चाहते हैं कि वो मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सपा से गठबंधन करे और सपा को कुछ सीट पर चुनाव लड़ने का मौका दे। दबाव की राजनीति के तहत उन्होंने मध्यप्रदेश की गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से समझौते को लगभग अंतिम रूप भी दे दिया है। गठबंधन के लिए कुछ ऐसी ही इच्छा मायावती की भी है।
हितों के टकराव जो भी हों लेकिन एक बात तो तय है कि यूपी में सपा-बसपा गठबंधन होना तय है क्योंकि मायावती एक और हर बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं और सपा भी नहीं चाहेगी कि उसकी हालत भविष्य में बसपा जैसी हो कि अस्तित्व का सवाल उठने लगे, हां ये हो सकता है कि हमें ये देखने को मिले कि एक रणनीति के तहत हमें यूपी में कांग्रेस अलग चुनाव लड़ती दिखे और गठबंधन की प्रत्यक्ष भागीदार न बने। यूपी की योगी सरकार ने अपने प्रशासन द्वारा गठबंधन के लिए मुफ़ीद परिस्थितियों भी तैयार कर दी हैं अर्थात लोहा गरम है बस हथौड़ा मारने की देर है।
(अनन्त वैभव, एलएल.एम. संवैधानिक विधि)
This post was last modified on February 9, 2019 12:57 PM
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