लखनऊ, 19 अक्टूबर (आईएएनएस)। उत्तर प्रदेश में विधानसभा की सात सीटों पर होने वाले उपचुनाव में बसपा कुछ सीटें झटक कर अपने को मुख्य लड़ाई में साबित करने की फिराक में है। पार्टी उपचुनाव में जोर शोर से भाग ले रही है। बसपा ने इस चुनाव में भी सोशल इंजीनियरिंग का ही फार्मूला चुना है। इसके लिए अपने बड़े नेताओं की फौज को प्रत्याशी चयन के लिए लगाया था। हर एक सीट पर बहुत सोच विचार कर ही उम्मीदवार उतारा गया है।
बसपा के एक नेता ने बताया कि, उपचुनाव में पार्टी के बड़े नेताओं के कंधे पर चुनाव जीताने की जिम्मेदारी है। बसपा के पास इस चुनाव में खोने के लिए कुछ नहीं है। लेकिन पाने के लिए बहुत कुछ है। पुराने इतिहास को देखें तो जहां पर उपचुनाव हो रहे हैं वो सीटें ज्यादातर बसपा के पास ही रही हैं। चाहे घाटपुर हो या बंगमऊ, बुलंदशहर — यह सब सीटें बसपा के खाते में एक दो बार रह चुकी हैं। यहां पर उसे गणित सेट करने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। लेकिन इस बार पार्टी ने सारे उम्मीदवार जीताऊ ही उतारे हैं। प्रदेश में जिस प्रकार से माहौल है उससे लोग बसपा के शासन को याद कर रहे हैं।
उन्होंने बताया कि चुनाव के लिए शीर्ष नेतृत्व के निर्देशन में हर एक सीट पर रणनीति तैयार की गयी है। राष्ट्रीय महासचिव सतीश चन्द्र मिश्रा, प्रदेश अध्यक्ष मुनकाद अली के अलावा सांसद विधायक भी पूरा फोकस उपचुनाव पर ही कर रहे हैं। चुनाव वाले क्षेत्र में विभिन्न समाज के लोगों ने डेरा डालकर रणनीति तैयार करना शुरू कर दिया है।
राजनीतिक पंडित बताते है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा तीसरे स्थान पहुंचकर 19 सीटें ही जीत पायी थी। इससे कार्यकतार्ओं का मनोबल टूटा था। उसकी भरपाई पार्टी इस उपचुनाव से करना चाहती है। यह बसपा के लिए बड़ा अवसर होगा। इससे आगे आने वाले चुनाव पर असर पड़ सकता है।
वरिष्ठ राजनीतिक विष्लेषक राजीव श्रीवास्तव कहते हैं कि बसपा 2012 से लगातार सत्ता से दूर है। भाजपा के सभी जातियों पर सेंधमारी का प्रयास कर रही उसके चलते बसपा के लिए चिंता का विषय जरूर है कि उसका वफादार वोटर उसके पास टिका रहे। इसके लिए पार्टी ने जमीनी स्तर पर तमाम कार्ययोजनाएं बनायी हैं। 2022 का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है। विपक्ष की जगह कई सालों से खाली पड़ी है। विपक्ष में एक जगह बनाना और भाजपा को चुनौती देना बहुत महत्वपूर्ण है। इस चुनाव के जरिए यह परखा जा रहा है। बसपा अपनी ओर कितनी जातियों के वोटर को आकर्षित कर सकती है। क्योंकि सोशल इंजीनियरिंग में बसपा 2007 में सफल हो चुकी है। बसपा के दलित वोट उसकी ओर कितने बचे है। सोशल इंजीनियरिंग के माध्यम से वह अन्य जातियों को अपनी ओर कितना खींच पाती है। इसकी भी परीक्षा इस उपचुनाव में होगी।
–आईएएनएस
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