Yash Chopra Death Anniversary: वो फिल्म डायरेक्टर जिसने अपनी फिल्मों के जरिए प्यार करना सिखाया

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“हर मानव की सबसे बड़ी इच्छा होती है कि उसे प्यार किया जाए। ज्यादा से ज्यादा प्यार किया जाए। बार-बार किया जाए। बार-बार चाहे जाने की इच्छा की पूर्ति के कारण जीवन में कई किरदार (महिला/पुरुष) आ सकते हैं। मैं अपनी फिल्मों को बोल्ड या रोमांटिक का नाम नहीं दूंगा, मैं कहूंगा कि मैं ह्यूमन रिलेशंस पर फिल्में बनाता हूं।

इंसान बहुत ही जटिल प्राणी है। मेरी पिक्चर में कोई विलेन या वैंप नहीं होता। रोमांटिक फिल्मों मे। मेरा मानना है कि आदमी ख़ुद ही विलेन है और ख़ुद ही हीरो है। डेस्टिनी हीरो है और वो ही विलेन है।

मैंने ख़ुद सोच लिया कि मैं किसी से लव करूंगा। ये मेरा ही फैसला है न? वो गलत भी तो हो सकता है। और जीवन की इस यात्रा में आपको फिर प्यार हो सकता है। तब आप किसी के प्रति बेइमान नहीं हो रहे लेकिन तब आप विलेन हैं। नियति विलेन है। जैसे हम फिल्म ‘दाग़’ (1973) की बात करें। एक आदमी दो औरतों के साथ रहता है। इस कहानी में सब किया नियति का है। आदमी की कोई गलती नहीं है।

आपको अपने जीवन के किसी भी पड़ाव पर ये नहीं कहना चाहिए कि मैं अब प्यार नहीं करूंगा। मेरा निजी तौर पर मानना है कि अगर आप किसी से प्यार नहीं करते और कोई आपको प्यार नहीं करता तो आपको जीना नहीं चाहिए। आपको जीने का कोई अधिकार नहीं है। ये जीवन लव पर ही आधारित है।”

यह बात कही थी बॉलीवुड के सबसे सफल डायरेक्टर्स में से एक यश चोपड़ा ने। प्रेम को लेकर यश चोपड़ा जी के अलग ही विचार थे। शायद इसीलिए उनकी फिल्में भी औरों से अलग हुआ करती थीं।

उन्होंने धूल का फूल, धर्मपुत्र, वक्त, जोशीला, दीवार, सिलसिला, विजय, चाँदनी, लम्हे, परम्परा, दिल तो पागल है, डर और वीर-ज़ारा जैसी कुछ बेहतरीन फिल्में बनाई थी। साल 2012 में उन्होंने फिल्म-निर्देशन से अपने संन्यास की घोषणा कर दी थी और इसी साल उन्होंने अपनी आखिरी सांस भी ली थी। 21 अक्टूबर 2012 को मुंबई में उनका निधन हो गया था।

यश चोपड़ा का जन्म 27 सितम्बर 1932 को ब्रिटिश भारत में पंजाब प्रान्त के ऐतिहासिक नगर लाहौर में हुआ था। उनका पूरा नाम यश राज चोपड़ा था। 1965 में आई फिल्म वक़्त की लोकप्रियता से उत्साहित होकर यश राज ने फिल्म निर्माण कम्पनी “यश राज फिल्म्स” की स्थापना 1973 में की थी। इस बैनर तले उन्होंने कई सुपरहिट फिल्में बनाईं।

यश राज को हिन्दी सिनेमा के इतिहास में एक ऐसे फिल्म निर्माता के रूप में जाना जाता है जिन्होंने छह बार राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और कुल मिलाकर ग्यारह बार में से चार बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। भारत सरकार ने उन्हें 2001 में दादा साहेब फाल्के पुरस्कार से नवाजा और 2005 में भारतीय सिनेमा के प्रति उनके योगदान के लिए उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

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