हिंदी साहित्य की हास्य-व्यंग्य विधा के महनीय हस्ताक्षर काका हाथरसी का जन्मदिवस और पुण्यतिथि दोनों आज है। 18 सितंबर 1906 को हाथरस के साधारण परिवार में जन्मे काका हाथरसी का देहांत भी 18 सितंबर को ही हुआ था। हिंदी व्यंग्य के सबसे मशहूर कवि काका हाथरसी (Kaka Hathrasi) ने देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी हिंदी काव्य की पताका को लहराया और हास्य सम्राट के रूप में ख्याति पाई। उनकी विशिष्ट शैली की छाप आज की पीढ़ी के कई कवियों पर स्पष्ट देखी जा सकती है। अनगिनत लेखक और व्यंग्यकार काका (Kaka Hathrasi) की शैली अपनाकर व्यवस्था पर चोट और श्रोताओं-पाठकों का मनोरंजन कर रहे हैं।
काका हाथरसी (Kaka Hathrasi) के व्यंग्य का मूल उद्देश्य मनोरंजन ही नहीं, बल्कि सामाजिक दोष, कुरीतियां, भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुशासन की ओर ध्यान आकर्षित करना है। सहज हास्य यानि किसी का अपमान या खिल्ली उड़ाए बगैर हंसाने का उपक्रम काका ने जमकर साधा। अश्लील चुटकुलों और द्विअर्थी संवादों के सहारे लोगों को हंसाना कोई मुश्किल काम नहीं है। लेकिन शिष्टता की सीमा में रहकर कुछ ऐसा कह देना, जो सार्थक व्यंग्य होने के साथ-साथ लोगों को हंसा दे, ये निश्चय ही बहुत बड़ी बात है। इस कला में काका हाथरसी को महारत हासिल रही।
1. काका हाथरसी का मूल नाम प्रभुलाल गर्ग था। उनके पिता का नाम शिव कुमार गर्ग था। जिस वक्त काका का जन्म हुआ देश में जानलेवा बीमारी प्लेग फैली हुई थी। इसी बीमारी ने उनके पिता की जान ले ली। पति की मौत होने पर मां बरफी देवी उन्हें इगलास अपने मायके में ले गईं। वहां उनका बचपन बेहद गरीबी में बीता।
2. किशोरावस्था में वे हाथरस लौटे और एक दुकान पर पट्टियों पर पेंट के काम के साथ पढ़ाई भी शुरू की। बचपन से ही उनकी रुचि कविता व साहित्य में थी। उन्होंने सबसे पहली कविता भी उन वकील साहब पर लिखी जिनसे वे अंग्रेजी की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।
3. 1946 में काका की कचहरी’ उनकी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई। इसमें काका की रचनाओं के अतिरिक्त कई अन्य हास्य कवियों की रचनाओं को भी संकलित किया गया था।
4. ब्रजभाषा व संस्कृत का ज्ञान काका को विरासत में मिला। अंग्रेजी व उर्दू पर भी उन्होंने अच्छी पकड़ बना ली। उन्होंने अपने एक मित्र रंगी लाल के सहयोग से चित्रकारी भी सीखी। उन्होंने हारमोनियम, तबला, बांसुरी आदि पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। सबसे पहले उन्होंने मथुरा से अपनी पत्रिका का प्रकाशन किया। बाद मे खुद की संगीत प्रेस की स्थापना की, जो आज भी हाथरस में संचालित है।
5. नाटकों में मंचन के दौरान प्रभुलाल गर्ग का नाम काका पड़ा। काका के बेटे लक्ष्मीनारायण के अनुसार, नाटक के मंचन में काका का किरदार देखकर शहर के लोग उनको काका कहने लगे। इस पर उन्होंने अपना नाम प्रभुदयाल गर्ग काका रख लिया। उन्होंने पिता जी को सुझाव दिया कि वह अपने नाम में हाथरसी शब्द जोड़े। पिता काका को यह सुझाव पसंद आया और उन्होंने अपना नाम काका हाथरसी रख लिया और अपने जन्मस्थान हाथरस को भी पहचान दिलाई।
6. काका ने हास्य कविताएं लिखने के साथ उन्हें हिंदी काव्य मंचों पर लाने के लिए किशोरावस्था से ही संघर्ष किया। इसे लेकर उन्हें कई बार अपमान का सामना भी करना पड़ा। मुंबई के एक मंच पर उन्होंने उस समय जबरन काव्य पाठ किया जब कवि सम्मेलनों में हास्य को कोई तवज्जो नहीं मिलती थी।
7. 1957 में पहली बार काका दिल्ली के लाल किले पर आयोजित कवि-सम्मेलन में आमंत्रित किए गए। सभी आमंत्रित कवियों से आग्रह किया गया था कि वे ‘क्रांति’ पर कविता करें। अब समस्या यह थी कि हास्य-कवि काका क्रांति पर क्या कविता करें? क्रांति पर तो वीर रस के कवि ही काव्यपाठ कर सकते थे। जब कई ओजस्वी कवियों के कविता पाठ के बाद काका का नाम पुकारा गया तो काका ने मंच से ‘क्रांति का बिगुल’ कविता सुनाई। काका की इस कविता ने अपना झंडा ऐसा गाड़ा कि सम्मेलन के संयोजक गोपालप्रसाद व्यास ने काका को गले लगा लिया।
8. नब्बे के दशक में काका हाथरसी की लोकप्रियता उफान पर थी। उनकी लिखी और सुनाई गई कविताओं का पूरे देश में जलवा था। इतना कि एक बार चंबल के डाकू भी काका हाथरसी समेत कुछ कवियों का अपहरण करके बीहड़ में ले गए ताकि उनका सरदार भी काका की कविताएं सुन सके। विदाई के समय डाकुओं ने काका हाथरसी को सौ रुपये भी दिए।
9. काका हाथरसी ने थके-हारे इंसान को हास्य कविता के माध्यम से हंसने, गुदगुदाने व ठहाके लगाने को मजबूर कर दिया।उन्होंने लोगों को यही मंत्र दिया- भोजन आधा पेट कर, दुगना पानी पीउ, तिगुना श्रम, चौगुन हंसी वर्ष सवा सौ जीउ। अपनी उत्कृष्ट और सधी हुई लेखनी की बदौलत काका हास्य-काव्य का ध्रुव तारक बने। उन्हें केंद्र सरकार ने पद्मश्री से भी सम्मानित किया।
10. 89 वर्ष की उम्र में काका हाथरसी ने 18 सितंबर 1995 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। लेकिन काका की अंतिम इच्छा थी कि उनके मरने पर सभी लोग हँसें और कोई नहीं रोए। ऐसा हुआ भी। ठहाकों के बादशाह काका हाथरसी की शवयात्रा ऊंटगाड़ी पर निकली और अंतिम संस्कार के समय श्मशान स्थल पर कवि सम्मेलन हुआ और इस दौरान खूब ठहाके लगे।
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This post was last modified on September 18, 2019 2:32 PM
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