देहरादून। हिंदुस्तान जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश के किसी सूबे की पहली महिला पुलिस महानिदेशक और दूसरी दबंग महिला आईपीएस कंचन चौधरी भट्टाचार्य दुनिया को अलविदा कह चुकी हैं। खाकी वर्दी पहनने के बावजूद उनकी बेबाकी, ईमानदारी, बहादुरी, सहयोगी-सरल-मिलनसार स्वभाव, बदन में धड़कते एक औरत के दिल के सच्चे किस्से-कहानियां मगर हमेशा जिंदा रहेंगे।
कंचन चौधरी के साथ बिताए चंद बेशकीमती लम्हों के दौरान उन्हीं की जुबानी उनकी कहानी और उनकी पुलिस की नौकरी के तमाम सच्चे किस्से-कहानी वक्त के साथ कभी भी गुम नहीं होने पाएंगे।
बात है बीते साल (2018) के अक्टूबर महीने की 5 या 6 तारीख की। वक्त यही रहा होगा रात करीब 8 बजे के आसपास का। उन दिनों दिनों कंचन चौधरी भट्टाचार्य (जहां तक याद आ रहा है) कला गांव (देहरादून, उत्तराखंड) वाले अपने फार्म-हाउस में अकेली रह रही थीं। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया था, “मेरे पैर में चोट लग गई है। साइकिल चलाते वक्त घर के पास ही सड़क पर गिर गई थी, तभी से बिस्तर पर पड़ी हूं। आराम करते-करते बोरियत होने लगी है। थोड़ा बहुत कभी-कभार मन बहलाने के लिए चल-फिर लेती हूं घर के अंदर ही। घर के बाहर केवल डॉक्टर को दिखाने के बहाने की जाना हो पा रहा है। बेटियां विदेश में हैं। पति मुंबई में बिजनेस संभाल रहे हैं। मैं भी कुछ समय बाद मुंबई चली जाऊंगी।”
बातचीत को बीच में ही अचानक रोककर फिर बोलीं, “पुलिस डिपार्टमेंट से रिटायर हो गई हूं। कोई काम-धाम है नहीं। रिटायर बुढ़िया को भला अब कौन पूछे? हां, पुलिस की नौकरी की यादें, कुछ गाने सुनकर और किताबें पढ़कर थोड़ी-बहुत देर टीवी देखकर जैसे-तैसे बुढ़ापा काट रही हूं। जिम्मेदारी के नाम पर अब मेरे पास धेले भर का काम नहीं है..।” कहते-कहते वो बेसाख्ता खिलखिलाकर हंस पड़ीं।
हंसी रुकी तो बोलीं, “और आप सुनाओ, पुलिस-पत्रकारिता की दुनिया में क्या चल रहा है? अब तो किसी पुराने जर्नलिस्ट का भी फोन नहीं आता। जिस दिन उत्तराखंड डीजीपी का चार्ज टेकओवर किया था, उस दिन पीएचक्यू (राज्य पुलिस महानिदेशालय) में मेरे चारों ओर मीडिया की बहुत भीड़ थी। मैं पत्रकारों के बीच में खड़ी थी। हर तरफ से सवाल आ रहे थे, मैं जवाब पर जवाब दिए जा रही थी।” बीच में एक लंबी सांस लेकर फिर बोलती हैं, “अब वक्त बहुत बदल गया है। न वो मीडिया रहा न पुलिस रही।” इसके बाद उधर से एकदम चुप्पी छा गई।
चंद सेकेंड तक जब फोन पर उनकी तरफ से कोई आवाज सुनाई नहीं दी तो मैंने कहा, “शायद आप बातचीत करने में खुद को असहज महसूस कर रही हैं, चलिए कोई नहीं, बाद में फोन करता हूं या आप ही कॉलबैक कर लीजिए जब बात करने का आपका मन हो..।” मेरे इतना कहते ही मानो वे तंद्रा से जागी हों, बोलीं- “नहीं-नहीं, आप बात करिए प्लीज। आप जैसे पुराने पत्रकार ने कम से कम इतने साल बाद मुझे मेरा सुनहरा अतीत याद तो दिलाया, वरना लंबे समय से बिस्तर पर अकेली पड़ी थी। अच्छा लग रहा है बात करने में आपसे..और सुनाइए..आप तो पुराने टाइम के जर्नलिस्ट हैं। आपके पास तो सबकी खैर-खबर रहती होगी। अजय राज शर्मा सर (दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर और सीमा सुरक्षा बल के सेवा-निवृत्त महानिदेशक) कैसे हैं? है कुछ उनकी खैर खबर? बस मुझे तो इतना पता है उनके बारे में कि वो नोएडा में कहीं रहते हैं।”
बातचीत का सिलसिला बढ़ा तो 1960 के दशक के अपने दबंग और ईमानदार मातहत सुरेंद्र सिंह लौर (यूपी पुलिस में अपने बैच के दबंग और ईमानदार दारोगा व यूपी पीएसी में डिप्टी एसपी पद से सेवानिवृत्त) के बारे में ही पूछने लगीं। बोलीं, “सुरेंद्र लौर सर जैसा बिरला सबऑर्डिनेट भी मुझे अपनी आईपीएस की नौकरी में शायद ही कभी कोई देखने को मिला हो। हाथ में एक थैला और पोस्टिंग के नाम पर पूछने पर कहते थे.. मैडम, जहां कोई थानेदार/दारोगा न जा रहा हो वहां मुझे भेज दो..सर (लौर) का वो सेंटेंस (वाक्य) आज भी मुझे हू-ब-हू रटा हुआ है। लौर सर की ईमानदारी के किस्से तो मैंने पहले भी सुन रखे थे, उनके साथ काम करके मगर मैंने खुद को गौरवान्वित महसूस किया। जब आपकी मुलाकात हो तो उनको मेरा नमस्कार बोलना।”
यादों की परतें खुलनी शुरू हुईं तो बेबाक कंचन खुद को नहीं रोक पाईं। बोलीं, “आज पुलिस का स्तर बेहद गिर चुका है। लखनऊ में पुलिस के सिपाही (प्रशांत चौधरी) द्वारा गोली मारकर की गई विवेक तिवारी की हत्या इसका सबसे घटिया उदाहरण है। ऐसा नहीं है कि हमारे वक्त में पुलिस गलतियां नहीं करती थीं, गलती कभी भी किसी से कहीं भी हो सकती है। महत्वपूर्ण यह जानना है कि गलती का चेहरा कैसा है? मैंने कभी भी किसी सब-ऑर्डिनेट (अधीनस्थ पुलिसकर्मी/अधिकारी) को वर्दी में सरकारी असलहे से खुली बदमाशी करने की छूट नहीं दी थी, जबकि इन दिनों मुझे तो पुलिस का यह तमाशा गली-गली में दिखाई दे रहा है।”
बहैसियत आईपीएस अधिकारी आपकी नौकरी का कोई वो किस्सा, जिसमें आपने भी गलती की हो? पूछने पर बोलीं, “मैं चूंकि आईपीएस अधिकारी थी, इसलिए जरूरी नहीं कि मैं अपने हाथों से ही कोई गलती करती सिर्फ वही मेरी गलती कहलाती। मेरे अधीनस्थ द्वारा की गई गलती की जिम्मेदारी भी मेरी ही बनती थी।”
कंचन चौधरी आगे बोलीं, “मुझे खूब याद है, उन दिनों मैं उत्तराखंड की पुलिस महानिदेशक थी। ऋषिकेश इलाके में पुलिस वालों ने एक महिला को घेरकर गोलियां मारकर उसकी हत्या कर दी। बाद में महिला को आतंकवादी साबित करने की कोशिशें भी आरोपी पुलिस वालों द्वारा की गईं। वह बेकसूर महिला रुड़की की रहने वाली थी। मैंने सच पता करवा लिया। परिणाम यह हुआ कि मैंने आरोपी सभी पुलिस वालों के खिलाफ हत्या का केस दर्ज करवा कर उन्हें जेल भेज दिया। जहां तक मुझे याद आ रहा है, दोषी पुलिस वाले आज भी जेल में ही पड़े होंगे। उन पुलिस वालों को गिरफ्तार कराने के बाद मैं खुद उस महिला के घर गई। मैंने पूरे उत्तराखंड पुलिस महकमे की तरफ से उस फर्जी मुठभेड़ में मारी गई महिला के परिवार से हाथ जोड़कर माफी मांगी। तब कहीं जाकर मेरा मन शांत हो सका।”
फिर बिना रुके ही पूछने लगीं, “लखनऊ में विवेक तिवारी जैसे बेगुनाहों का कत्ल करने के आरोपी प्रशांत चौधरी जैसे बिगड़ैल और गुंडाटाइप सिपाही आखिर भर्ती ही क्यों और कैसे हो जाते हैं?” यह सवाल उठाते वक्त उनकी आवाज में तल्खी थी। बोलीं, “पुलिस महकमे में जब जबरदस्ती थोक के भाव भर्तियां की जाएंगी, नेता-मंत्री के अपने सब भर्ती होने के लिए लाइन में सबसे आगे खड़े करवाए जाएंगे। पुलिस अफसरों के अपने चहेतों की लिस्ट भर्ती पूरी होने से पहले ही बन चुकी होगी, तो आप ऐसी भर्तियों से आने वाले सिपाहियों से लखनऊ के विवेक तिवारी जैसे बेकसूरों के कत्ल के अलावा और क्या उम्मीद करते हैं? मुझसे और मत बुलवाइए, वरना डिपार्टमेंट वाले (पुलिस महकमे के लोग) यही कहेंगे कि बहुत बोलती है.. रिटायरमेंट के बाद भी बुढ़िया को चैन नहीं है।” इसके साथ ही वे ठहाका मारकर फिर एक बार बेसाख्ता हंस पड़ती हैं।
अगले ही पल उन्होंने कहा, “आज बहुत सारी बातचीत हो गई। मैं अब आराम करना चाहती हूं। आप ऐसे ही जब मन करे तब फोन करते रहा करिए। कुछ दिन के लिए मैं मुंबई जाऊंगी। वापिस आ जाऊं तो आप कभी मिलने देहरादून जरूर आइए।”
लेकिन कंचन चौधरी भट्टाचार्य अब कभी देहरादून नहीं लौटेंगी। सोमवार 26 अगस्त, 2018 की रात मुंबई के एक अस्पताल में लंबी बीमारी के बाद पहली महिला पुलिस महानिदेशक इस जहां से रुखसत हो गईं, हमेशा-हमेशा के लिए।
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