Acharya Vinoba Bhave Birth anniversary : भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, महान विचारक तथा प्रसिद्ध गांधीवादी नेता आचार्य विनोबा भावे (Acharya Vinoba Bhave) की आज जयंती है। उनका मूल नाम विनायक नरहरी भावे था। आचार्य विनोबा भावे की ख्याति भारत में भूदान तथा सर्वोदय आंदोलन के प्रणेता के रूप में रही है। वह गांधीजी की तरह ही अहिंसा के पुजारी थे।
उन्होंने अहिंसा और समानता के सिद्धांतों का पालन करते गए अपना जीवन गरीबों और वंचित-शोषित वर्ग के लिए लड़ने को समर्पित कर दिया। उनको भूदान आंदोलन के लिए सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली। सामुदायिक नेतृत्व के लिए 1958 में रमन मैग्सेसे पुरस्कार पाने वाले आचार्य विनोबा भावे (Acharya Vinoba Bhave) पहले व्यक्ति थे। 1983 में मरणोपरांत उनको देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया। आइए आज उनकी जयंती के अवसर पर उनके बारे में जानते हैं…
आचार्य विनोबा भावे (Acharya Vinoba Bhave) का जन्म 11 सितंबर, 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिले के गागोड गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम नरहरि शंभू राव और माता का नाम रुक्मिणी देवी था। उनकी माता रुक्मिणी काफी धर्मपरायण महिला थीं। अध्यात्म का रास्ता चुनने की प्रेरणा उनको मां से ही मिली थी। काफी कम उम्र में ही भगवद गीता के अध्ययन के बाद उनके अंदर अध्यात्म की ओर रुझान पैदा हुआ। वैसे विनोबा भावे मेधावी छात्र थे और उनकी गणित में काफी रुचि थी। लेकिन परंपरागत शिक्षा से उनका मन जल्द ही ऊब गया। उन्होंने सामाजिक जीवन को त्याग कर हिमालय में जाकर संत बनने का फैसला लिया था।
ये वो वक्त था जब देश गुलामी की जंजीरों में बंधा था। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए चल रहे आंदोलनों का उन पर काफी असर हुआ। नतीजतन उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने का फैसला किया। इस सिलसिले में उन्होंने देश के कोने-कोने की यात्रा करनी शुरू कर दी। इस दौरान वह क्षेत्रीय भाषा सीखते जाते और साथ ही शास्त्रों एवं संस्कृत का ज्ञान भी हासिल करते रहते।
इस सफर के दौरान वह बनारस पहुँचते हैं जहाँ से उनके जीवन में एक नया मोड़ आता है। वहां उनको गांधीजी का वह भाषण मिल जाता है जो उन्होंने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में दिया था। इसके बाद उनकी जिंदगी में बहुत बड़ा बदलाव आता है। 1916 में जब वह इंटरमीडिएट की परीक्षा मुंबई देने जा रहे थे तो उन्होंने रास्ते में अपने स्कूल और कॉलेज के सभी सर्टिफिकेट जला दिए। उन्होंने गांधीजी से पत्र के माध्यम से संपर्क किया।
20 साल के विनोबा भावे (Acharya Vinoba Bhave) से गांधीजी काफी प्रभावित हुए और उनको अहमदाबाद स्थित अपने कोचराब आश्रम में आमंत्रित किया। 7 जून, 1916 को विनोबा भावे ने गांधीजी से भेंट की और वहीं आश्रम में रहने लगे। विनोबा भावे को महात्मा गांधी के सिद्धांत और विचारधारा काफी पसंद आए। उन्होंने गांधीजी को अपना राजनीतिक और आध्यात्मिक गुरु बनाने का फैसला किया। उन्होंने बिना किसी हिचक के गांधीजी के नेतृत्व को स्वीकार किया।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे विनोबा और गांधीजी के बीच संबंध और मजबूत होते गए। उन्होंने आश्रम की सभी तरह की गतिविधियों में हिस्सा लिया और साधारण जीवन जीने लगे। समाज कल्याण की गतिविधियों में उनकी भागीदारी बढ़ती रही। इस तरह उन्होंने अपना जीवन गांधी के विभिन्न कार्यक्रमों को समर्पित कर दिया। विनोबा नाम को उनका यह नाम आश्रम के एक सदस्य मामा फाड़के ने दिया था। दरअसल मराठी में किसी व्यक्ति को काफी सम्मान देने के लिए ‘विनोबा’ कहा जाता है।
8 अप्रैल, 1921 को विनोबा वर्धा गए थे। गांधीजी ने उनको वहां जाकर गांधी आश्रम का प्रभार संभालने का निर्देश दिया था। जब वह वर्धा में रहते थे, उन दिनों उन्होंने मराठी में एक मासिक पत्रिका भी निकाली जिसका नाम ‘महाराष्ट्र धर्म’ था। पत्रिका में उनके निबंध और उपनिषद होते थे। उन्होंने गांधीजी के सभी राजनीतिक कार्यक्रमों बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वह गांधीजी के सामाजिक विचार जैसे भारतीय नागरिकों और विभिन्न धर्मों के बीच समानता में विश्वास करते थे।
गांधीजी के प्रभाव में विनोबा भावे (Acharya Vinoba Bhave) ने देश के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उन्होंने असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया। वह खुद भी चरखा कातते थे और दूसरों से भी ऐसा करने की अपील करते थे। विनोबा भावे की स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी से ब्रिटिश शासन बौखला गया। उन पर ब्रिटिश शासन का विरोध करने का आरोप लगा। अंग्रेजी हुकूमत ने उनको छह महीने के लिए जेल भेज दिया। उनको महाराष्ट्र के धुलिया स्थित जेल भेजा गया था जहां उन्होंने कैदियों को मराठी में ‘भगवद गीता’ पढ़ाया। साल 1940 तक तो विनोबा भावे को सिर्फ वही लोग जानते थे, जो उनके इर्द-गिर्द रहते थे। 5 अक्टूबर, 1940 को महात्मा गांधी ने उनका परिचय राष्ट्र से कराया। गांधीजी ने एक बयान जारी किया और उनको पहला सत्याग्रही बताया।
विनोबा भावे (Acharya Vinoba Bhave) ने सामाजिक बुराइयों जैसे असमानता और गरीबी को खत्म करने के लिए जमकर प्रयास किया। गांधीजी की प्रेरणा से उन्होंने समाज के दबे-कुचले तबके लिए काम करना शुरू किया। उन्होंने सर्वोदय शब्द को लोकप्रिय बनाया जिसका मतलब सबका विकास था। 1950 के दौरान उनके सर्वोदय आंदोलन के तहत कई कार्यक्रमों को लागू किया गया जिनमें से एक भूदान आंदोलन था।
साल 1951 में वह आंध्र प्रदेश (अब तेलंगाना) के हिंसाग्रस्त इलाकों का दौरा कर रहे थे। 18 अप्रैल, 1951 को पोचमपल्ली गांव में उनकी मुलाकात कुछ हरिजनों से हुई। उन लोगों ने अपने जीवनयापन के लिए विनोबा भावे से करीब 80 एकड़ भूमि उपलब्ध कराने का आग्रह किया। विनोबा भावे ने गांव के जमींदारों से आगे बढ़कर हरिजनों को अपनी जमीन दान करने की अपील की। उनकी अपील का असर रामचंद्र रेड्डी नाम के एक जमींदार पर हुआ। उसने सबको हैरत में डालते हुए अपनी जमीन दान देने का प्रस्ताव रखा। इस घटना से भारत में त्याग और अहिंसा के लंबे इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया। यहीं से आचार्य विनोबा भावे का भूदान आंदोलन शुरू हो गया। यह आंदोलन आगामी 13 सालों तक चलता रहा।
इस दौरान विनोबा ने देश के चप्पे-चप्पे में भ्रमण किया। कहते हैं, इस दौरान उन्होंने करीब 59 हजार किलोमीटर सफर तय किया। उत्तर प्रदेश और बिहार में बड़े पैमाने पर भूदान हुआ। सरकार ने भूदान एक्ट भी पास करा दिया ताकी ज़मीन का व्यवस्थित बंटवारा हो सके। इस आंदोलन के जरिये वह गरीबों के लिए 22.90 लाख एकड़ भूमि दान के रूप में हासिल करने में सफल रहे। उन जमीनों में से 13 लाख एकड़ जमीन को भूमिहीन किसानों के बीच बांट दिया गया।विनोबा भावे के इस आंदोलन की दुनिया भर में काफी तारीफ हुई।
भूदान आंदोलन के अलावा विनोबा (Acharya Vinoba Bhave) ने महिलाओं के उत्थान के लिए भी काफी कार्य किया। उन्होंने 1959 में महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से ब्रह्म विद्या मंदिर की स्थापना की। उन्होंने लोगों के बीच सादगी से जीवन गुजारने और चकाचौंध से दूर रहने को बढ़ावा देने के लिए कई आश्रम भी खोले।
उन्होंने अपने जीवन में कई किताबें लिखीं। उनकी ज्यादातर किताबें अध्यात्म पर थीं। मराठी, तेलुगु, गुजराती, कन्नड़, हिंदी, उर्दू, इंग्लिश और संस्कृत समेत कई भाषाओं पर उनकी पकड़ थी। उन्होंने संस्कृत में लिखे कई शास्त्रों का सामान्य भाषा में अनुवाद किया। उनकी लिखी किताबों में स्वराज्य शास्त्र, गीता प्रवचन, तीसरी शक्ति प्रमुख हैं।
नवंबर 1982 में विनोबा (Acharya Vinoba Bhave) गंभीर रूप से बीमार पड़ गए और उन्होंने अपने जीवन को त्यागने का फैसला लिया। उन्होंने जैन धर्म के संलेखना- संथारा के रूप में भोजन और दवा का त्याग कर इच्छापूर्वक मृत्यु का वरण करने का निर्णय किया। आखिरकार 15 नवंबर, 1982 को देश ने एक महान समाज सुधारक को खो दिया।
This post was last modified on September 11, 2019 10:15 AM
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