चौरी-चौरा : बिस्मिल की फांसी ने गोरखपुर को बना दिया क्रांतिकारियों का गढ़

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गोरखपुर, 5 फरवरी (आईएएनएस)। चौरी-चौरा शताब्दी वर्ष के उद्घाटन समारोह में गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि यह महज एक थाने में आगजनी की घटना नहीं थी। यह उस आग का नतीजा थी जो वर्षों से लोगों के दिलों में जल रही थी। इसका असर बहुत व्यापक था। इतिहास में भले इस घटना की अनदेखी की गई हो पर बाद के दिनों में आजादी मिलने तक की घटनाएं प्रधानमंत्री की बातों का सबूत हैं। चौरी-चौरा की घटना के बाद गोरखपुर जंगे आजादी की अगुआई करने वाले शीर्ष नेताओं के लिए तीर्थ बन गया।

दस्तावेज के अनुसार 19 दिसंबर 1927 को काकोरी कांड के आरोप में यहां के जेल में हुई रामप्रसाद बिस्मिल की फांसी के बाद तो यह क्रांतिकारी आंदोलन का भी गढ़ बन गया। इन सबसे प्रभावित होकर यहां के लोगों ने नमक आंदोलन से लेकर 1942 की अगस्त क्रांति तक सबमें बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था। 4 अक्टूबर 1929 को गांधीजी का दूसरी बार गोरखपुर आना हुआ। उन्होंने गोला, घुघली, गोरखपुर, महराजगंज, बरहज और चौरीचौरा में सभाएं कीं। उनका यह दौरा 8 फरवरी 1921 के दौरे से अधिक व्यापक और असरदार था।


गांधीजी संभवत: गोला के पास सरयू नदी स्थित बारानगर घाट से आए थे। इस यात्रा में गांधीजी ने गोला में पहली सभा की थी। जेबी कृपालानी की अगुआई में उनका स्वागत हुआ। गोला के बाद बड़हलगंज, गगहा और कौड़ीराम के रास्ते वे गोरखपुर होते हुए तय कार्यक्रम के अनुसार घुघली पहुंचे। उसी दिन वे गोरखपुर लौटे और परेड ग्राउंड पर सभा की। 5 और 6 अक्टूबर को उन्होंने महराजगंज, बरहज बाजार और चौरी-चौरा में भी जनसभाएं कीं। वह साइमन कमीशन के बहिष्कार का दौर था। इसके विरोध में देश भर में काला दिवस मनाया जा रहा था। ऐसे में गांधी ने यहां आकर उस समय चलाए जा रहे विदेशी सामानों और शराब के बहिष्कार और इनकी दुकानों पर दिए जा रहे धरने को और प्रभावी बनाया। 1940 में लालडिग्गी पार्क में जवाहर लाल की जनसभा हुई। फिरंगी हुकुमत ने इसमें दिये गये उनके भाषण को राजद्रोह मानते हुए चार साल की सजा दी। सजा के लिए देहरादून जाने के पहले तीन दिन गोरखपुर के जेल में ही रहे। इसी दौरान दशरथ प्रसाद द्विवेदी ने स्वदेश नामक अखबार के जरिए लोगों में आजादी की अलख जगायी। विश्वनाथ मुखर्जी ने ब्रिटिश हुकूमत के शोषण के खिलाफ मजदूरों में इंकलाब की भावना जगाई। बैरिस्टर शाकिर अली ने नेहरू, भुल्ला भाई देसाई और आसफ अली के साथ मिलकर आजाद हिंद फौज के अधिकारियों और सिपाहियों के खिलाफ चल रहे मुकदमों की पैरवी की। पंडित गौरीशंकर मिश्र, जामिन अली, मौलवी सुभानउल्लाह, शिब्बन लाल सक्सेना, फिराक गोरखपुरी, मुंशी प्रेमचंद्र, शचीद्र नाथ सान्याल, बाबा राघवदास, मधुकर दीघे, शिवरतन लाला बनर्जी, जैसे न जाने कितने ज्ञात और अज्ञात लोगों ने अपने तरीके से आजादी की इस लड़ाई में अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया।

बिस्मिल मूलत: शाहजहांपुर के रहने वाले थे। 9 अगस्त 1925 को काकोरी के पास ट्रेन से खजाना लूटने के मामले में वह भी चंद्रशेखर आजाद, मन्मथ नाथ गुप्त, अशफाक उल्लाह, राजेंद्र लाहिड़ी, शचीद्रनाथ सान्याल, केशव चक्रवर्ती, मुरारीलाल, मुकुंदीलाल और बनवारी लाल के साथ अभियुक्त थे। इस आरोप में वह गोरखपुर जेल में बंद थे।

फांसी के तीन दिन पहले बिस्मिल ने अपनी मां और साथी को बेहद मर्मस्पर्शी पत्र लिखा था। मां को लिखे पत्र का मजमून कुछ यूं है – शीघ्र ही मेरी मृत्यु की खबर तुमको सुनाया जाएगा। मुझे यकीन है कि तुम समझ कर धैर्य रखोगी कि तुमहारा पुत्र माताओं की माता भारत माता की सेवा में अपने जीवन को बलिदेवी पर भेंट कर गया।


इसी तरह अशफाक को संबोधित पत्र में उन्होंने लिखा कि, प्रिय सखा..अंतिम प्रणाम मुझे इस बात का संतोष है कि तुमने संसार में मेरा मुंह उज्जवल कर दिया। — जैसे तुम शरीर से बलशाली थे वैसे ही मानसिक वीर और आत्म के भी उच्च सिद्ध हुए। तुमको यह सोच कर संतोष होगा कि जिसने अपना सब कुछ मातृ सेवा के लिए कुर्बान कर दिया उसने अपने प्रिय सखा .को भी इसी मातृ भूमि को भेंट चढ़ा दिया।

बिस्मिल की फांसी से पूरा गोरखपुर हिल उठा। खद्दर के कफन में लिपटे उनके शव के उनके अंतिम संस्कार में हजारों लोग शामिल हुए। बाबा राघव दास उनकी राख को लेकर बरहज गए।

इतिहास ने जिस महžवपूर्ण घटना की अनदेखी की वह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पहल पर चौरी-चौरा शताब्दी वर्ष के जरिए एक बार फिर लोगों के दिलो-दिमाग पर अमिट रूप से चस्पा हो गई।

–आईएएनएस

विकेटी-एसकेपी

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