Swami Vivekananda’s Speech: वो शख्स जिसके वजह से शिकागो में स्वामी विवेकानंद का भाषण देना मुमकिन हो पाया

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National Youth Day 2020: 25 वर्ष की उम्र में स्वामी विवेकानंद बने संन्यासी, पढ़ें उनके अनमोल विचार जो बदल देंगे आपकी जिंदगी

जब भी स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) का ज़िक्र होता है तब अमेरीका के शिकागो की धर्म संसद (Chicago Parliament of World Religions) में साल 1893 में उनके द्वारा दिए गए भाषण का ज़िक्र जरूर होता है। लेकिन ये बहुत कम लोगों को पता है कि शिकागो पार्लियामेंट ऑफ वर्ल्ड रिलीजंस में हिस्सा लेना बेहद मुश्किल हो गया था।

विवेकानंद  को जब इस बात की जानकारी हुई कि बिना किसी अधिकारिक बुलावे या किसी परिचय पत्र के  इस पार्लियामेंट में इजाजत नहीं मिलेगी तो वह बेहद चिंतित हो गए थे। उस वक्त हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (Harvard University) में एक प्रोफेसर हुआ करते थे हेनरी राइट (John Henry Wright)। प्रोफेसर को विवेकानंद से पहली मुलाकात ने बहुत प्रभावित किया था।


जब विवेकानंद ने उन्हें अपनी दिक्कत बताई तो उन्होंने कहा कि ‘आप से परिचय पत्र मांगना स्वामी बिलकुल ऐसा है जैसे सूरज से उसके चमकने के अधिकार को लेकर पूछना’ इसके बाद प्रोफेसर ने एक सिफारिश पत्र लिखा ‘Here is a man who is more learned than all our learned professors out together’ (यहां एक आदमी है जो हमारे यहां के सारे प्रोफेशर्स से ज्यादा ज्ञान रखा है।)

भारत से शिकागो तक का सफर नहीं था आसान

शिकागो में 11 से 27 सितम्बर 1893 को पार्लियामेंट ऑफ वर्ल्ड रिलीजंस का आयोजन हुआ। उसी स्थान पर आज शिकागो आर्ट इंस्टीट्यूट है। जब विवेकानंद को पता चला कि सारे धर्मों की एक विश्व धर्म संसद शिकागो में हो रही है, तो उन्होंने सोचा कि पूरे विश्व को हिंदू धर्म के बारे में बताने का यही बेहतरीन मौका होगा। उन्होंने वहां जाने का निर्णय लिया।


पानी के जहाज के जरिए स्वामी विवेकानंद बॉम्बे से 31 मई 1893 को अमेरिका के लिए निकले। विवेकानंद को इस यात्रा  के दौरान चीन, जापान और कनाडा होकर जाना था। चीन के गुआंगझोऊ में विवेकानंद ने कई बौद्ध मठों का दौरा किया और पुरानी संस्कृत और बंगाली की पांडुलिपियां भी देखीं।

चीन के बाद वो जापान पहुंचे पहला शहर था नागासाकी, जहां अमेरिका ने एटम बम गिराया था। नागासाकी के अलावा जापान के लगभग तीन और शहरों का दौरा उन्होंने किया, उसमें से एक क्योटो भी था। क्योटो के अलावा वो ओसाका और टोक्यो भी गए। उसके बाद विवेकानंद योकोहामा पहुंचे, यहीं से उन्हें कनाडा के लिए निकलना था।

इसी जहाज में सफर के दौरान जमशेदजी टाटा से उनकी मुलाकात हुई। वह भी उस वक्त शिकागो जा रहे थे। दोनो की यही मुलाकात ऐतिहासिक हो गई। कहा जाता है कि इसी मुलाकात के दौरान विवेकानंद ने जमशेदजी टाटा को दो बड़े काम करने की प्रेरणा दी थी। एक टाटा स्टील की स्थापना करना और दूसरा था इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की स्थापना करना। टाटा ने इन दोनों कामों को पूरा किया।

बेंगलुरु स्थित ये यूनिवर्सिटी आज रैंकिंग में भारत की सबसे बेहतरीन यूनिवर्सिटी है। 30 जुलाई को विवेकानंद शिकागो पहुंच गए। अभी सभा शुरू होने में 1 महीने से ज्यादा का वक्त था। विवेकानंद के पास ज्यादा पैसे नहीं थे तो वो थोड़े सस्ते शहर बोस्टन चले गए।

शिकागो जाकर विवेकानंद मिले हार्वर्ड के प्रोफेसर और स्कॉलर जॉन हेनरी राइट से। राइट ने विश्व इतिहास को 24 वॉल्यूम में लिखा है। प्रोफेसर राइट अमेरिकन जनरल ऑफ ऑर्कियोलोजी के चीफ एडिटर भी थे। जब वो विवेकानंद से मिले तो पहले मुलाकात में ही वह उनके प्रशंसक बन गए थे। 25 से 27 अगस्त तक राइट के कहने पर विवेकानंद उनके घर पर ही रुके थे। उसी स्थान पर विवेकानंद को पता चला कि बिना किसी अधिकारिक बुलावे या किसी परिचय पत्र के इस पार्लियामेंट में इजाजत नहीं मिलेगी। उन्होने जब यह बात प्रोफेसर को बताई तो उन्होंने कहा कि ‘आप से परिचय पत्र मांगना स्वामी बिलकुल ऐसा है जैसे सूरज से उसके चमकने के अधिकार को लेकर पूछना’

राइट ने तत्काल प्रभाव से उस पार्लियामेंट के चेयरमेन को एक खत लिखा। यही नहीं राइट ने विवेकानंद के लिए रेलवे टिकट का इंतजाम भी किया। स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर, 27 सितंबर तक वहां 6 बार भाषण दिया। स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर को दिए अपने उस भाषण में कहा-

“अमरीकी भाइयों और बहनों, आपने जिस स्नेह के साथ मेरा स्वागत किया है उससे मेरा दिल भर आया है। मैं दुनिया की सबसे पुरानी संत परंपरा और सभी धर्मों की जननी की तरफ़ से धन्यवाद देता हूं। सभी जातियों और संप्रदायों के लाखों-करोड़ों हिंदुओं की तरफ़ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मैं इस मंच पर बोलने वाले कुछ वक्ताओं का भी धन्यवाद करना चाहता हूं जिन्होंने यह ज़ाहिर किया कि दुनिया में सहिष्णुता का विचार पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से हूं जिसने दुनिया को सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ़ सार्वभौमिक सहिष्णुता पर ही विश्वास नहीं करते बल्कि, हम सभी धर्मों को सच के रूप में स्वीकार करते हैं।मुझे गर्व है कि मैं उस देश से हूं जिसने सभी धर्मों और सभी देशों के सताए गए लोगों को अपने यहां शरण दी. मुझे गर्व है कि हमने अपने दिल में इसराइल की वो पवित्र यादें संजो रखी हैं जिनमें उनके धर्मस्थलों को रोमन हमलावरों ने तहस-नहस कर दिया था और फिर उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं जिसने पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और लगातार अब भी उनकी मदद कर रहा है। मैं इस मौके पर वह श्लोक सुनाना चाहता हूं जो मैंने बचपन से याद किया और जिसे रोज़ करोड़ों लोग दोहराते हैं। जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां, अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है। ये रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हैं, लेकिन ये सब ईश्वर तक ही जाते हैं।

मौजूदा सम्मेलन जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, वह अपने आप में गीता में कहे गए इस उपदेश इसका प्रमाण है: ”जो भी मुझ तक आता है, चाहे कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग अलग-अलग रास्ते चुनते हैं, परेशानियां झेलते हैं, लेकिन आखिर में मुझ तक पहुंचते हैं।” सांप्रदायिकता, कट्टरता और इसके भयानक वंशजों के धार्मिक हठ ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती को जकड़ रखा है। उन्होंने इस धरती को हिंसा से भर दिया है और कितनी ही बार यह धरती खून से लाल हो चुकी है। न जाने कितनी सभ्याताएं तबाह हुईं और कितने देश मिटा दिए गए। यदि ये ख़ौफ़नाक राक्षस नहीं होते तो मानव समाज कहीं ज़्यादा बेहतर होता, जितना कि अभी है। लेकिन उनका वक़्त अब पूरा हो चुका है. मुझे उम्मीद है कि इस सम्मेलन का बिगुल सभी तरह की कट्टरता, हठधर्मिता और दुखों का विनाश करने वाला होगा। चाहे वह तलवार से हो या फिर कलम से।”

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