हिंसा रोकने के लिए मरीजों, डॉक्टरों के बीच संवाद बढ़ाने की जरूरत

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भीड़ द्वारा डॉक्टरों और उनकी संपत्तियां पर किए जाने वाले हमले का अगर कोई समाधान नहीं खोजा गया तो चिकित्सा पेशे को ‘खतरनाक’ मानने का खतरा पैदा होगा और चिकित्सा के कॅरियर के प्रति बढ़ती मांग शिथिल पड़ जाएगी। इंसान को तकलीफ से उबारने के पेशे में लगे डॉक्टरों की सामाजिक जिम्मेदारी है लेकिन क्या समाज परस्पर आदान-प्रदान करेगा?

महिलाओं, बच्चों या आम आदमी के प्रति हिंसा की बात आती है तो हंगामा मच जाता है। भारी तादाद में लोग इकट्ठा होकर इनसाफ की मांग के लिए पोस्टर के साथ नारेबाजी करते हैं।


लेकिन, क्या हमने ऐसा हंगामा तब देखा है जब उन्मादी भीड़ द्वारा हमला करके किसी डॉक्टर को गंभीर रूप से जख्मी कर दिया जाता है। ऐसे में लोग पोस्टर के साथ सड़कों पर क्यों नहीं निकलते हैं और चिकित्सा समुदाय पर हमला करने वाले के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग क्यों नहीं करते हैं?

डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा सिर्फ भारत में नहीं होती है, बल्कि दुनियाभर में ऐसी घटनाएं देखने को मिलती हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, बांग्लादेश, पाकिस्तान; सब जगह डॉक्टर हिंसा के शिकार हुए हैं।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के एक अध्ययन के अनुसार, काम के दौरान 75 फीसदी डॉक्टरों को हिंसा से जूझना पड़ा है। लेकिन, डॉक्टर के प्रति हिंसा रोकथाम अधिनियम के तहत कितने मरीजों और उनके रिश्तेदारों पर मामले दर्ज किए गए हैं?


मीडिया में नकारात्मक खबरों से मेडिकल समुदाय की छवि खराब हुई है। न सिर्फ लोग बल्कि मीडिया में भी डॉक्टरों को आसानी से निशाना बनाया जाता है।

जब किसी चिकित्सकीय उपेक्षा की बात आती है तो सिर्फ मरीज के पक्ष को भी प्रमुखता दी जाती है। डॉक्टरों को अपना पक्ष रखने के लिए बहुत कम समय दिया जाता है।

परंपरागत रूप से डॉक्टरों का समाज में काफी आदर रहा है, लेकिन इस पेशे में कुछ लोगों की व्यावसायिक मानसिकता के कारण डॉक्टरों की छवि खराब हुई है। लेकिन, क्या इस पर ध्यान दिया जा रहा है कि अस्पतालों को बिजली-पानी जैसी मूलभूत चीजों को व्यावसायिक दर से क्यों दिया जाता है। इन चीजों पर और श्रम शक्ति का खर्च अब बहुत अधिक हो गया है।

डॉक्टरों पर हमले को रोकना तब तक संभव नहीं है जब तक मौजूदा आर्थिक तंत्र और स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था में पूरा बदलाव नहीं किया जाता है। इस बदलाव के तहत डॉक्टरों और मरीजों के बीच संवाद बढ़ाना होगा और डॉक्टरों और मरीजों व उनके रिश्तेदारों के बीच संवाद का जो फासला है, उसे दूर करना होगा। डॉक्टर पर काम का बहुत अधिक बोझ नहीं होना चाहिए ताकि उसके पास मरीजों और उनके रिश्तेदारों से संवाद का समय रहे।

(डॉ. रजत अरोड़ा यशोदा हॉस्पिटल, गाजियाबाद में इंटरवेन्शनल कार्डियोलोजिस्ट हैं और इस आलेख में उनकी निजी राय है।)

 

(इस खबर को न्यूज्ड टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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