उर्दू के अज़ीम और आधुनिक शायरों की फेहरिस्त में फैज़ अहमद फैज़ (Faiz Ahmad Faiz) का नाम शुमार है। फैज़ के लिखे कलाम समय और सरहदों से आगे निकलकर मकबूल हुए। वामपंथी विचारों के समर्थक रहे फैज़ की नज़्में हकीकत के कड़वे एहसास, बदलाव और प्रेम की साझा जमीन पर उपजी है। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की इंकलाबी रचनाओं में रसिक भाव का अद्भुत मेल दिखता है। उनका जन्म 13 फरवरी, 1911 को सियालकोट में हुआ था। उर्दू, अरबी और फारसी में शिक्षा ग्रहण करने के बाद वह 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े।
नक्श-ए-फ़रियादी उनके छंदों का संकलन है जिसका प्रकाशन 1941 में हुआ। अंग्रेज़ महिला एलिस जॉर्ज से शादी करके वे दिल्ली आ गए थे। फैज़ ब्रिटिश इंडियन आर्मी के भी अंग रहे और सेना में कर्नल के पद तक उनकी तरक्की हुई। आजादी के बाद विभाजन के वक्त वे लाहौर चले गए और वहाँ लियाकत अली खां के तख़्तापलट की साजिश के जुर्म में जेल भी गए।
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1955 में जेल से रिहा हुए फैज़ कुछ वर्षों तक पाकिस्तानी कला परिषद में रहे। वहां से निकलने के बाद भ्रमण पर निकल गए और दुनिया के कई देशों की सैर की। प्रगतिशील मूल्यों और वामपंथी विचारों के बतौर शेरो- शायरी की दुनिया में दाख़िल होने वाले फ़ैज़ लंबे समय तक अंतर्राष्ट्रीय प्रगतिशील पत्रिका ‘लोटस’ से भी जुड़े रहे।
फ़ैज़ सिर्फ मोहब्बतों के शायर नहीं थे। फ़ैज़ की रचनाओं में इश्क़ है तो इंकलाब भी है। असहमतियां भी हैं और उम्मीद भी। उनकी शायरी में गरीबों-मज़लूमों की आवाज़ है जो पूंजीवाद के दौर में कहीं दब गई है। पेश हैं उनके कुछ शेर…
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।
आप की याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर
कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब
आज तुम याद बे-हिसाब आए
गुजरे जमाने से इसी तरहा मुलाकात कराते रहिये,
दिन जो ढल जाये तो एक दीप जलते रहिये।
जिंदगी क्या किसी मुफलिस की कबा है,
जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबन्द लगे जाते हैं। (मुफलिसः गरीब, कबाः लंबा चोगा)
दिल नाउम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है गम की शाम, मगर शाम ही तो है।
आदमियों से भरी है यह सारी दुनिया मगर,
आदमी को आदमी होता नहीं दस्तयाब। (दस्तयाबः उपलब्ध)
निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन, कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
कटते भी चलो बढ़ते भी चलो बाज़ू भी बहुत हैं सर भी बहुत
चलते भी चलो कि अब डेरे मंज़िल ही पे डाले जाएँगे
बोल, कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बां अब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल, कि जाँ अब तक तेरी है
वो लोग बहुत ख़ुशक़िस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे
हम जीते जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
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