लोकसभा चुनाव 2019 : लालू के अस्तित्व की लड़ाई, बिहार की ये तीन सीटें तय करेंगी

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लालू प्रसाद यादव हमेशा से अपने अलग अंदाज और अपनी अलग राजनीति पहचान के लिए जाने जाते हैं। अपनी वाक्पटुता और गंवई अंदाज़ से दर्शकों और श्रोताओं को हंसाते-हंसाते लोटपोट करने में लालू का कोई सानी नहीं है।  फिलहाल लालू जेल में हैं और उनकी कमी सबसे ज्यादा उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को खल रही है। 71 की उम्र, कई बीमारियां और आकाश में मंडराते बादलों की तरह पार्टी-परिवार में खटपट ये सब वजहें लालू के विरोधियों के लिए काफी है उन पर कटाक्ष करने के लिए। हाल ये है कि लालू हर स्तर पर जूझ रहे हैं। इसलिए वो रिश्तेदारों, परिजनों और मित्रों की अहमियत समझते हैं। सियासत में भी इस अहमियत को वे जब-तब साबित करते रहे हैं। इस बार का प्रयोग कोई नया नहीं, लेकिन नए किरदारों ने कहानी को रोचक बना दिया है।

पाटलिपुत्र, सारण और मधेपुरा सीटें तय करेंगी लालू का अस्तित्व

माना जा रहा है कि बिहार की तीन सीटों पर लालू की राजनीतिक प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के लिए राजनीति कभी सहज नहीं रही। इस बार तो महज तीन सीटें पाटलिपुत्र, सारण और मधेपुरा उनकी सियासी इकबाल की पैमाइश कर देंगी। दरअसल, उन तीन सीटों से उनके राजनीतिक कॅरियर का कोई न कोई सूत्र जुड़़ा हुआ है।


आपको बता दें कि ये संयोग ही है कि उन तीनों सीटों से लालू जब-तब चुनाव लड़ चुके हैं। ये तीनों सीटें लालू की राजनीति के पूर्वाद्ध और मध्य काल में उत्थान-पतन का एक कारक रही हैं। इस बार के नतीजे एक तरह से उनकी संसदीय राजनीति के उतरार्ध का आकलन होंगे। लालू के लिए हालांकि हाजीपुर में भी वजूद की लड़ाई होगी, जिसके दायरे के दो विधानसभा क्षेत्रों महुआ और राघोपुर का प्रतिनिधित्व उनके दोनों बेटे तेज प्रताप और तेजस्वी यादव कर रहे हैं। वैसे तेज प्रताप के बगावती तेवरों ने भी लालू की परेशानी बढ़ा रखी है।

लालू की बड़ी बेटी मीसा भारती पाटलिपुत्र  में दांव आजमा रहीं हैं। सारण की सीट पर लालू के समधी चंद्रिका राय मैदान में हैं। एक अंतराल के बाद शरद यादव से फिर से लालू की मित्रता परवान पर चढ़ी है। शरद मधेपुरा से मैदान में हैं। वैसे लालू इस बात का ख्याल रखते हैं कि राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता।

दस अप्रैल को लालू की रिहाई के मामले में सुप्रीम कोर्ट फैसला सुना सकता है। बहुत संभव है कि उसके बाद राजद की चुनावी राजनीति पर कुछ असर हो। जाति-आधारित राजनीति को अक्सर प्रतिगामी या विकास विरोधी माना जाता है, फिर भी बिहार में उसका जोर है।


इस बार भी टिकट आवंटन का आधार जाति ही है। जिन तीन सीटों से लालू की प्रतिष्ठा जुड़ रही, उन पर मुकाबले के उम्मीदवार एक खास बिरादरी से हैं। ऐसे में चुनौती कुछ बड़ी हो गई है।

पाटलिपुत्र में मीसा भारती 

पाटलिपुत्र का राजनीतिक इतिहास दिलचस्प रहा है। वहां 2009 में लालू अपने राजनीतिक गुरु प्रो. रंजन प्रसाद यादव से गच्चा खा गए थे। तब रंजन यादव जदयू के उम्मीदवार थे। महज 23 हजार पांच सौ 41 मतों से मात मिली थी। वह टीस जब-तब उठ ही जाती है। पिछली बार कसक कुछ और बढ़ गई। मीसा भारती राजद की उम्मीदवार थीं, जिन्हें रामकृपाल यादव ने 40322 मतों से शिकस्त दी थी। कभी लालू का दाहिना हाथ कहे जाने वाले रामकृपाल ऐन  चुनाव के वक्त राजद छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे। उन्हें  केंद्र में मंत्री का पद मीसा को पराजित करने के पुरस्कार स्वरूप मिला। एक बार फिर रामकृपाल और मीसा आमने-सामने हैं। हकीकत में यह मुकाबला रामकृपाल बनाम लालू है।

मधेपुरा से शरद यादव की शाख 

मधेपुरा में राजनीति के सिद्धस्त लालू 1999 के चुनाव में शरद यादव से मात खा गए थे। तब शरद राजग के उम्मीदवार थे। मधेपुरा में लालू ने घोषणा कर रखी थी कि वे शरद को कागजी शेर और जनाधार विहीन नेता साबित कर देंगे। दूसरी तरफ शरद का दावा था कि वे खुद को यादवों का असली और बड़ा नेता साबित करेंगे। नतीजे ने लालू को निराश किया था। आज लालू उसी शरद को मंझधार से निकालने में लगे हुए हैं। यह उस उपकार का बदला भी हो सकता है, जो शरद ने लालू को मुख्यमंत्री बनाने के लिए किया था। 1990 में लालू के अलावा रामसुंदर दास और रघुनाथ झा मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे।

रामसुंदर दास को तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह का आशीर्वाद मिला हुआ था। रघुनाथ झा के साथ चंद्रशेखर थे और लालू के साथ देवीलाल। उस वक्त शरद यादव ने खुलकर लालू की मदद की थी। जनता दल के 121 में से 56 विधायकों के वोट लालू को मिले। रामसुंदर दास से दो वोट अधिक। रघुनाथ झा को महज 14 वोट मिले।

सारण में ऐश्वर्या  के पिता चंद्रिका राय

अगर सारण की बात करें तो यहां से राजद ने चंद्रिका राय को उम्मीदवार बना रखा है। वे पूर्व मुख्यमंत्री दरोगा प्रसाद राय के पुत्र हैं और 1998 के चुनाव में तीसरे पायदान पर रहे थे। एक दौर में यादवों के बीच रामलखन सिंह यादव की पैठ थी। तब पहचान और आधार के लिए लालू संघर्ष कर रहे थे।

दरोगा प्रसाद राय ने अंदरखाने उनकी भरपूर मदद की। इस तरह बिरादरी में लालू की स्वीकार्यता बढ़ी। उसके बाद दोनों परिवारों के बीच संबंध मधुर होते गए। 2018 में अपने बड़े पुत्र तेज प्रताप का विवाह चंद्रिका राय की पुत्री ऐश्वर्या से कर लालू इस संबंध को अटूट बनाने की भरसक कोशिश किए।

तेज प्रताप के अड़ंगे के बाद लालू के लिए सारण में खुद को साबित करने की चुनौती है। पिछली बार यहां राबड़ी देवी को भाजपा के राजीव प्रताप रूडी ने 40948 मतों के अंतर से पटखनी दी थी। लालू के लिए इसका मलाल लाजिमी है, क्योंकि कभी यह इलाका उनके नाम का पर्याय था। सारण (तब छपरा) से लालू चार बार सांसद रहे हैं।

बिहार की जनता इस बार किसे चुनती है और किस पर भरोसा करती है ये तो चुनावों के बाद ही पता लगेगा। लेकिन इतना जरूर है कि बिहार में जाति एक बड़ा मुद्दा है जिसे सभी दल बखुभी समझते हैं और  इस मुद्दे को भुनाना भी जानते हैं। ऐसे में लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक समझ कितनी काम आती है ये देखना होगा और उनके प्रत्याशी उनके अस्तित्व को कैसे संभालते हैं ये भी देखना होगा।

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