पुण्यतिथि विशेष: बाबू जगजीवन राम ने पूरी जिंदगी वंचितों के हितों के लिए किया संघर्ष, मदन मोहन मालवीय भी थे उनसे प्रभावित

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पुण्यतिथि विशेष: बाबू जगजीवन राम ने पूरी जिंदगी वंचितों के हितों के लिए किया संघर्ष, मदन मोहन मालवीय भी थे उनसे प्रभावित

“जाति ने हिंदुस्तान का जितना नुकसान किया है, वह सभी प्रकार के नुकसानों से ज्यादा है” ये शब्द बाबू जगजीवन के हैं। पूरी जिंदगी वंचितों के हितों के लिए संघर्ष करने वाले नेता बाबू जगजीवन राम देश के उप प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे। वह देश की आज़ादी के साथ ही दलित राजनीति का प्रमुख चेहरा बन गए। अछूत कही जाने वाली जाति में पैदा होने का दंश झेलते हुए, वह देश की राजनीति में अपनी अमिट छाप छोड़कर गए।

सामाजिक अपमानों और आर्थिक कठिनाईयों का सामना

बाबू जगजीवन राम का जन्म 5 अप्रैल 1908 को बिहार के चंदवा नामक गांव में एक दलित परिवार में हुआ। उनकी माता का नाम वासन्ती देवी और पिता का नाम संत शोभी राम था। वह आठ भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। 6 वर्ष की उम्र में ही पिता का साया उनसे छीन गया था। 8 वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह हो गया, उसके बाद उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा। किसी ने शायद ही सोचा होगा कि सामाजिक अपमानों और आर्थिक कठिनाईयों का सामना करते हुए बाबू एक दिन सफल होकर जीवन की उंचाईयों को छुएंगें।


कभी नहीं स्वीकार की असमानता

बाबू जगजीवन ने गांव की प्राइमरी स्कूल में 1914 में प्रवेश लिया। उसके बाद आरा के मिडिल स्कूल से पढाई की। 1922 में आरा टाउन स्कूल में प्रवेश लिया।  यहां उन्हें विद्यालय के अंदर छुआछूत और अपमान का सामना करना पड़ा। गैर-दलित छात्रों ने घड़े से पानी पीने से उन्हें रोका। उनके लिए अलग घड़े का इंतजाम किया गया। बाबू जगजीवन ने इसे स्वीकार नहीं किया। सामाजिक बदलाव की चेतना उनके भीतर जन्म लेने लगी।

बाबू जगजीवन राम से प्रभावित थे मदन मोहन मालवीय

1925 में आरा छात्र सम्मेलन में उन्होंने हिस्सेदारी की और सम्मेलन को संबोधित किया। उनके भाषण का उपस्थित लोगों पर गहरा असर पड़ा। इन लोगों में मदन मोहन मालवीय भी शामिल थे। मालवीय ने उन्हें काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढने के लिए आमंत्रित किया। 1926 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में प्रवेश लिया। लेकिन अछूत होने से कहां मुक्ति मिलने वाली थी। मेस में बर्तन धोने वाले ने उनका बर्तन धोने से इंकार कर दिया। नाई ने बाल काटने से इंकार कर दिया। इस कारण हिंदू विश्वविद्यालय का छात्रावास छोड़ना पड़ा। उन्हें अस्सीघाट में एक केवट के यहां शरण लेनी पड़ी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय से आईएसएसी (इंटरमीडियट ऑफ साइंस) की परीक्षा पास की।

बाद में उन्होंने कलकत्ता के प्रतिष्ठित विद्यासागर कॉलेज में प्रवेश लिया। इसके बाद वे सक्रिय तौर पर सार्वजनिक जीवन के लिए समर्पित हो गए। वहां उन्होंने कामगारों और खेतिहर मजदूरों की एक रैली निकाली। यहीं उनका सुभाषचन्द्र बोस और बिधान चन्द्र राय जैसै लोगों के साथ संपर्क हुआ। उनके सार्वजनिक जीवन में एक बड़ा परिवर्तन उस समय आया, जब वे 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में शामिल हुए। वहीं उनका जवाहरलाल नेहरू से घनिष्ठ संपर्क कायम हुआ। गांधी के साथ जाति और अछूत समस्या पर पत्र-व्यवहार शुरू हुआ।


जाति के संदर्भ में उनका कहना था कि, ‘वे देश की गुलामी का कारण भी जाति प्रथा को मानते थे।’ समता और सम्मान को वह सबसे ज्यादा महत्व देते थे और मानते थे कि भारतीय समाज में इसी चीज का सबसे अधिक अभाव है। उनका कहना था कि ‘भारतीय समाज में समता और सम्मान सभी नागरिकों के लिए एक आकाश कुसुम है। विषमता की सीढियां हैं,ऊपर से नीचे, उसके नीचे और नीचाई काअंत नहीं, इसको बदलना है।’

मंदिर में अछूतों के प्रवेश के लिए आंदोलन

1934 में कलकत्ता में अखिल भारतीय रविदास सम्मेलन का उन्होंने आयोजन किया। इस क्रम में उड़ीसा के पुरी के जगन्नाथ मंदिर और उत्तर प्रदेश के बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में अछूतों के मंदिर प्रवेश आंदोलन आरंभ किया। 1935 में कानपुर के अछूत प्रतिनिधि नेताओं का दलित वर्ग एकता सम्मेलन का आयोजन हुआ। जगजीवन राम जी इसके अध्यक्ष चुने गए।

वह पहली बार 1936 में बिहार विधान परिषद के सदस्य मनोनीत हुए। 1937 में  पूर्व मध्य शाहाबाद ग्रामीण क्षेत्र से  बिहार विधान सभा के लिए चुने गए। उनका निर्वाचन निर्विरोध हुआ था। इस दौरान भी वे स्वतंत्रता आंदोलन में निरंतर सक्रिय रहे। इसी व्यक्तिगत सत्याग्रह में हिस्सेदारी करते हुए 10 दिसंबर 1940 को गिरफ्तार हुए। 10 अक्टूबर 1941 तक जेल में रहे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय हिस्सेदारी की। बिहार में इस आंदोलन की अगुवाई की। वह 19 अगस्त 1942 को फिर गिरफ्तार किए गए।  बाद में 1946 में वे संविधान सभा के सदस्य चुने गए। 1946 में केंद्र में नेहरू के नेतृत्व में बनने वाली सरकार में उन्होंने श्रम विभाग की जिम्मेदारी संभाली।

संसद का सफर

देश में संविधान लागू होने के बाद 1952 में सासाराम संसदीय क्षेत्र से प्रथम लोकसभा के सदस्य चुने गए। 1952 से 1956 के बीच परिवहन और रेल मंत्री रहे। उनके रेलमंत्री के कार्यकाल में पहली बार अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति के सरकारी कर्मचारियों के लिए पदोन्नति में आरक्षण का आदेश जारी कराया।  निरंतर वे केंद्र सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे। 1967-70 तक खाद्य,कृषि और सिंचाई मंत्री के रूप में हरित क्रांति का नारा दिया और देश को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया।

1969 से 1971 तक वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। रक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने 1971 के पाकिस्तान के साथ युद्ध में देश का नेतृत्व किया। वहीं 1977 में आपातकाल के विरोध में कांग्रेस से अलग हो गए। प्रजातांत्रिक कांग्रेस का गठन किया। उन्होंने जनता पार्टी के निर्माण में अहम भूमिका निभाई। जनता पार्टी सरकार में भी वे रक्षा मंत्री बने। बाद में 24 जनवरी 1979 को देश के उप प्रधानमंत्री बने। 1946 से लेकर 1986 निरतंर 40 वर्षों तक सासाराम संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर उन्होंने विश्व कीर्तिमान बनाया। 6 जुलाई 1986 को दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में उनका देहांत हुआ। तीन दिनों तक देशव्यापी शोक मनाया गया।

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