Bihar Assembly Elections 2020: बिहार (Bihar) में कांग्रेस (Congress) की घटती लोकप्रियता और भाजपा (BJP) के उत्थान के बीच बड़ा ही दिलचस्प सा रिश्ता नज़र आ रहा है। दरअसल पिछले कुछ दिनों में देखने को मिला है कि कांग्रेस के नेताओं को बीजेपी आसानी से पचा ले रही है। कुछ ऐसी ही मनोदशा कांग्रेस के पुराने मतदाताओं की भी देखने को मिल रही है।
इसका सीधा मतलब ये हुआ कि अब कांग्रेस का बड़ा वोट बैंक भी अब भाजपा को वोट देने में किसी तरह नहीं हिचक रहा है। कांग्रेस से भाजपा में आए डॉ. सीपी ठाकुर इसके ताजा उदाहरण हैं। भाजपा ने उन्हेंं इस तरह अपनाया कि उनके पुत्र विवेक ठाकुर भी पार्टी के लिए स्वीकार्य हो गए।
दैनिक जागरण में छपे लेख में अक्षय पांडे ने लिखा कि जनसंघ के जमाने से जुड़े उन भाजपाइयों की तादाद बहुत कम होगी, जिनकी पीढ़ियां राज्यसभा तक पहुंच पाई। डॉ. ठाकुर का नाम बड़ा है। भाजपा में आए उन कांग्रेसियों की संख्या भी कम नहीं है, जो उनकी तरह असरदार नहीं, फिर भी पार्टी में उनका विशेष सम्मान है।
पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्र के पुत्र नीतीश मिश्र भाजपा के नेता हैं। उन्हेंं पिछली बार झंझारपुर से उम्मीदवार बनाया गया था। कांग्रेस में नामचीन ललित नारायण मिश्र के स्वजन भी भाजपा में आसानी से फिट हो गए। डॉ. जगन्नाथ मिश्र राज्य में कभी कांग्रेस के पर्याय हुआ करते थे।
इस तरह खिसका जा रहा है बीजेपी में कांग्रेस का आधार
चुनावी साल : सीटों पर उम्मीदवार : जीत और वोट प्रतिशत
1990 : कांग्रेस : 323 : 71 24.78
भाजपा : 237 : 39 : 11.61
1995 : कांग्रेस : 320 : 29 : 16.03
भाजपा : 315 : 41 : 13.00
2000 : कांग्रेस : 324 : 23 : 11.01
भाजपा : 168 : 67 : 14.06
2005 (फरवरी) : कांग्रेस : 84 : 10 : 5.00
भाजपा : 103 : 37 : 10.07
2005 (अक्टूबर) : कांग्रेस: 51 : 09: 6.09
भाजपा : 102: 55: 15.65
2010 : कांग्रेस : 243 : 04 : 8.38
भाजपा : 102 : 91 : 16.46
2015 : कांग्रेस : 41 : 27 : 6.07
भाजपा : 157 : 53 : 21.81
जानें कैसा रहा कांग्रेस और बीजेपी का चुनावी गणित
नेतृत्व के स्तर पर ही भाजपा में कांग्रेस के नेताओं का कोई सम्मान नहीं है। यह पिछले कुछ एक चुनाव परिणामों से साफ हो गया है। साल 1990 में कांग्रेस राज्य की सत्ता से दूर हुई तो तब से लेकर अब तक यही सिलसिला बदस्तूर जारी रहा है। राज्य में कांग्रेस जितनी कमजोर कमजोर होती है वहीं भाजपा मजबूत होती जा रही है।
अगर कांग्रेस थोड़ी तंदुरुस्त होती है तो भाजपा की हालत खराब होने लगती है। साल 1985 में कांग्रेस बिहार विधानसभा की 196 सीटें जीती थी। साल 1990 में 71 पर आ गई। उधर भाजपा 16 से बढ़कर 39 सीटों तक पहुंच गई। तब कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी बनी। भाजपा ने 1995 में उससे मुख्य विपक्षी पार्टी का ओहदा भी छीन लिया। उस साल कांग्रेस 29 पर सिमट गई जबकि भाजपा 39 से 41 पर पहुंची।
2000 में कांग्रेस 23 सीट पर जीती तो तब भी भाजपा 67 पर पहुंच गई। उसके बाद के चुनावों में भी कांग्रेस-भाजपा की हार-जीत का यही समीकरण रहा है। 2005 में कांग्रेस नौ सीट पर जीती तो भाजपा 55 पर ठहर गई, लेकिन 2010 में कांग्रेस चार पर सिमटी तो भाजपा 91 सीटों पर जीत गई। साल 2015 में महागठबंधन का दबदबा रहने के बावजूद कांग्रेस चार से 27 पर पहुंची। इधर भाजपा 91 से 53 पर आ गई।
सत्ता की स्वतंत्र दावेदारी से अब भी कोसो दूर बीजेपी
अब ये बात भी रोचक है कि इतनी उठापठक के बावजूद भी कांग्रेस के आधार का बड़ा हिस्सा लेने के बावजूद भाजपा अबतक सत्ता की स्वतंत्र दावेदारी हासिल नहीं कर सकी। उसे कांग्रेस से एक मामले में बढ़त हासिल तो हुई कि उसकी मदद से सत्ता में पहुंचा जाता है। वह इसका उपयोग अपना दायरा बढ़ाने के लिए करती आई है।
पिछले बीत चुके 30 वर्षों में कांग्रेस को यह मौका साल 2000 में हासिल हुआ था, जब उसकी मदद के बिना राजद की सरकार का बनना नामुमकिन था, मगर कांग्रेस ने उस अवसर का इस्तेमाल जनता के बीच यह संदेश देने के लिए किया कि सत्ता ही उसके लिए सब कुछ है। वह वाकई अदभुत सरकार थी, जिसमें कांग्रेस के एक को छोड़ सभी विधायक मंत्री बन गए थे।