BATLA HOUSE FILM REVIEW: सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्में आमतौर पर दर्शकों को ज्यादा पसंद आती हैं। हाल के वर्षों में इस तरह की फिल्मों के बनने का एक ट्रेंड शुरू हुआ है। बाटला हाउस (Batla House) भी उसी किस्म की फिल्म है। 15 अगस्त यानि आजादी का दिन और दूसरी ओर देश प्रेम के जज्जे को दर्शाने वाली फिल्म, इससे बेहतर और क्या हो सकता है। इसी मौके का फायदा उठाते हुए जॉन अब्राहम ने निखिल अडवानी के निर्देशन में बनी बाटला हाउस को स्वतंत्रता दिवस पर रिलीज करने का फैसला किया
कहानी: देश का चर्चित बाटला हाउस (Batla House) एनकाउंटर। करीब 11 साल पहले दिल्ली स्थित जामिया नगर के बटला हाउस में हुआ एनकाउंटर काफी चर्चा में रहा था। 19 सितंबर 2008 को हुए इस एनकाउंटर में दो संदिग्ध आतंकवादी आतिफ अमीन और मोहम्मद साजिद पुलिस के हाथों मारे गए थे। वहीं, एक संदिग्ध भागने में कामयाब हो गए थे। साथ ही इस एनकाउंटर में दिल्ली पुलिस स्पेशल के इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शहीद हो गए थे।
13 सितंबर 2008 को दिल्ली में हुए सीरियल बम धमाकों की जांच के सिलसिले में दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल के अफसर के के (रवि किशन) और संजीव कुमार यादव (जॉन अब्राहम) अपनी टीम के साथ बाटला हाउस एल-18 नंबर की इमारत की तीसरी मंजिल पर पहुंचते हैं। वहां पर पुलिस की इंडियन मुजाहिदीन के संदिग्ध आतंकियों से मुठभेड़ होती है। इस मुठभेड़ में दो संदिग्धों की मौत हो जाती है और एक पुलिस अफसर के घायल होने के साथ-साथ के के की मौत। एक संदिग्ध मौके से भाग निकलता है। इस एनकाउंटर के बाद देश भर में राजनीति और आरोप-प्रत्यारोपों का माहौल गरमा जाता है।
विभिन्न राजनीतिक पार्टियों और मानवाधिकार संगठनों द्वारा संजीव कुमार यादव की टीम पर बेकसूर छात्रों को आतंकी बताकर फर्जी एनकाउंटर करने के गंभीर आरोप लगते हैं। इस सिलसिले में संजीव कुमार यादव को बाहरी राजनीतिक दबाव के साथ ही डिपार्टमेंट की अंदरूनी चालों का भी सामना करना पड़ता है। वह पोस्ट ट्रॉमैटिक डिसॉर्डर जैसी मानसिक बीमारी से जूझता है। जांच को आगे बढ़ाने और खुद को निर्दोष साबित करने के सिलसिले में उसके हाथ बांध दिए जाते हैं। उसकी पत्नी नंदिता कुमार (मृणाल ठाकुर) उसका साथ देती है। कई गैलेंट्री अवॉर्ड्स से सम्मानित जांबाज और ईमानदार पुलिस अफसर अपनी व अपनी टीम को बेकसूर साबित कर पाता है? इसे जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।
रिव्यू: निर्देशक निखिल अडवानी की फिल्म की खासियत यह है कि ये कई परतों के साथ आगे बढ़ती है। इस एनकाउंटर के बाद पैदा हुए तमाम दृष्टिकोणों को वे दर्शाने में कामयाब रहे हैं। इन परतों में पुलिस की जांबाजी, अपराधबोध, बेबसी, उसकी दागदार होती साख, पॉलिटिकल पार्टीज की राजनीति, मानवाधिकार संगठनों का आक्रोश, धार्मिक कट्टरता, मीडिया के प्रोजेक्शन और प्रेशर पर लगातार डिबेट होती है। फिल्म में कई तालियां पीटनेवाले डायलॉग्ज हैं। जैसे एक सीन में संजीव कुमार यादव कहता है ‘एक टैरेरिस्ट को मारने के लिए सरकार जो रकम देती है, उससे ज्यादा तो एक ट्रैफिक पुलिस एक हफ्ते में कमा सकता है।’
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