Engineer’s Day: जब सर विश्वेश्वरैया ने बचाई थी सैकड़ों अंग्रेजों की जान, जयंती पर पढ़िए ये मशहूर किस्सा

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Engineer's Day: जब सर विश्वेश्वरैया ने बचाई थी सैकड़ों अंग्रेजों की जान, जयंती पर पढ़िए ये मशहूर किस्सा

आज देश के सबसे नामी इंजीनियर सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया (Sir Mokshagundam Visvesvaraya) की जयंती है। एम विश्वेश्वरैया (M. Visvesvaraya) के सम्मान में हर साल 15 सितंबर को इंजीनियर्स डे (Engineer’s Day) मनाया जाता है। विश्वेश्वरैया (M Visvesvaraya) का जन्म मैसूर (कर्नाटक) के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर तालुक में 15 सितंबर, 1861 को हुआ था। उनके पिता संस्कृत के पंडित थे। लेकिन महज 12 साल की उम्र में ही उनके सिर से पिता का साया उठ गया।

विश्वेश्वरैया (Visvesvaraya) ने जीवन के शुरुआती साल कर्नाटक में बिताए थे। शुरुआती पढ़ाई चिकबल्लापुर में करने के बाद वो बैंगलोर चले गए जहां से उन्होंने साल 1881 में बीए डिग्री हासिल की। इसके बाद पुणे के कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग में पढ़ाई की। सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करते ही उन्होंने बॉम्बे में पीडब्ल्यूडी के साथ काम किया और उसके बाद भारतीय सिंचाई आयोग में काम करने लगे।


दक्षिण भारत के मैसूर को एक विकसित और समृद्धशाली क्षेत्र बनाने में उनकी अहम भूमिका रही है। तब कृष्णराज सागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील व‌र्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फ़ैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ़ मैसूर समेत कई संस्थान उनकी कोशिशों का नतीजा हैं। विश्वेश्वरैया (Visvesvaraya) का निधन 101 साल की उम्र में 14 अप्रैल 1962 को हो हुआ।

सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के लिए उनका काम ही पूजा थी। विश्वेश्वरैया शिक्षा की महत्ता को भलीभांति समझते थे। लोगों की गरीबी व कठिनाइयों का मुख्य कारण वह अशिक्षा को मानते थे। उनसे जुड़ा एक किस्सा काफी मशहूर है कि एक बार एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, ‘आपके चिर यौवन (दीर्घायु) का रहस्य क्या है?’ तब डॉ. विश्वेश्वरैया (Visvesvaraya) ने उत्तर दिया, ‘जब बुढ़ापा मेरा दरवाज़ा खटखटाता है तो मैं भीतर से जवाब देता हूं कि विश्वेश्वरैया घर पर नहीं है और वह निराश होकर लौट जाता है। बुढ़ापे से मेरी मुलाकात ही नहीं हो पाती तो वह मुझ पर हावी कैसे हो सकता है?’

अंग्रेजों से जुड़ी वो कहानी

सर विश्वेश्वरैया (Sir Visvesvaraya) से जुड़ा एक और क़िस्सा काफ़ी मशहूर है। यह उस समय की बात है जब भारत में अंग्रेजों का शासन था। खचाखच भरी एक रेलगाड़ी चली जा रही थी, जिसमें ज़्यादातर अंग्रेज सवार थे। एक डिब्बे में एक भारतीय मुसाफिर गंभीर मुद्रा में बैठा था। सांवले रंग और मंझले कद का वो मुसाफिर साधारण लिबास में था। वहां बैठे अंग्रेज उसे अनपढ़-गंवार समझकर उसका मजाक उड़ा रहे थे। पर वो व्यक्ति अपनी ही धुन में रमा हुआ किसी की बात पर ध्यान नहीं दे रहा था।


लेकिन सहसा उस व्यक्ति ने उठकर गाड़ी की जंज़ीर खींच दी। तेज रफ्तार से दौड़ती हुई ट्रेन तत्काल रुक गई। सभी यात्री चेन खींचने वाले शख्स को खरी-खोटी सुनाने लगे। थोड़ी ही देर में गार्ड आ गया और पूछने लगा कि जंज़ीर किसने खींची है।

उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘मैंने।’ गार्ड के वजह पूछने पर उसने बताया, ”मेरा अंदाज़ा है कि यहां से कुछ दूरी पर रेल की पटरी उखड़ी हुई है।’

गार्ड ने पूछा, ‘तुम्हें कैसे पता चला?’ तो व्यक्ति बोला, ‘श्रीमान! मैंने अनुभव किया कि गाड़ी की स्वाभाविक गति में अंतर आ गया है। पटरी से गूंजने वाली आवाज की गति से मुझे खतरे का आभास हो रहा है।’

गार्ड उस व्यक्ति को लेकर जब कुछ दूर पहुंचा तो देखकर दंग रह गया कि वास्तव में एक जगह से रेल की पटरी के जोड़ खुले हुए हैं और सब नट-बोल्ट अलग बिखरे पड़े हैं। तब तक दूसरे यात्री भी वहां आ पहुंचे।

जब लोगों को पता चला कि उस व्यक्ति की सूझबूझ के कारण उनकी जान बच गई है तो वे उसकी प्रशंसा करने लगे। गार्ड ने पूछा, ‘आप कौन हैं?’ उस व्यक्ति ने कहा, ‘मैं एक इंजीनियर हूं और मेरा नाम है डॉ. एम. विश्वेश्वरैया (M Visvesvaraya) है।’ यह नाम सुन ट्रेन में बैठे सारे अंग्रेज हक्के-बक्के रह गए।


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