Rani Laxmi Bai Death Anniversary: झांसी की वो रानी जिसकी बहादुरी के अंग्रेज भी कायल हो गए थे

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Know about Jhansi ki rani lakshmi bai on her death anniversary

Rani Laxmi Bai Death Anniversary: अदम्य साहस, शौर्य और भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई की आज पुण्यतिथि है। देशभक्ति की प्रतिमूर्ति झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने कम उम्र में ही ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से संग्राम किया और रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की।

रानी लक्ष्मीबाई ने जीते-जी अंग्रेजों को अपनी झांसी पर कब्जा नहीं करने दिया, उनकी बहादुरी के किस्से और ज्यादा मशहूर इसलिए हो जाते हैं, क्योंकि उनके दुश्मन भी उनकी बहादुरी के मुरीद हो गए थे। अंग्रेजी हूकुमत से लोहा लेने वाली रानी लक्ष्मी बाई को उनके पुण्यतिथि पर पूरा देश उन्हें याद कर रहा है।


रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी असाधारण वीरता और साहस से एक नया अध्याय लिखा। वह नारी शक्ति और अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध क्रांति का प्रतीक बनी। स्वाधीनता व स्वाभिमान के लिए उनका बलिदान अनंत काल तक पूरी दुनिया को प्रेरित करता रहेगा। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम में स्वतंत्रता की अलख जगाई थी।

इतिहास में 18 जून- वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का 1858 में निधन

वाराणासी में 19 नवम्बर 1835 को एक ब्राह्मण परिवार में जन्मी रानी लक्ष्मीबाई का नाम मणिकर्णिका रखा गया था। उन्हें बचपन में प्यार से मनु या छबीली के नाम से बुलाया जाता था। सन 1842 में उनकी विवाह झांसी के मराठा शासक राजा गंगाधर राव के साथ हुआ। सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसकी मात्र चार महीने की आयु में ही मृत्यु हो गई।


इसके बाद राजा की गंभीर अवस्था को देखते हुए रानी लक्ष्मीबाई ने एक दत्तक पुत्र गोद ले लिया। गंगाधर राव को तो इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वे फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर 1853 को चल बसे। महाराजा का निधन महारानी के लिए असहनीय था, लेकिन फिर भी वे घबराई नहीं और उन्होंने विवेक से काम लिया।

राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंगे्रज सरकार को सूचना दे दी थी। परंतु ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार ने दत्तक पुत्र को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। यह सूचना पाते ही रानी ने कहा कि मैं किसी भी हाल में अपनी झांसी नहीं दूंगी।

रानी लक्ष्मीबाई ने सात दिन तक बड़े साहस के साथ झांसी की सुरक्षा की और अपनी छोटी-सी सशस्त्र सेना से अंग्रेजों का बड़ी बहादुरी से मुकाबला किया। रानी ने शत्रु का सामना किया और युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया। वे अकेले ही अपनी पीठ के पीछे दामोदर राव को कसकर घोड़े पर सवार हो, अंग्रेजों से युद्ध करती रहीं।

अब बहुत दिन तक युद्ध का क्रम इस प्रकार चलना असंभव था। सरदारों का आग्रह मानकर रानी ने कालपी प्रस्थान किया। यहां आकर उन्होंने नाना साहब और उनके योग्य सेनापति तात्या टोपे से संपर्क स्थापित किया और विचार-विमर्श किया। रानी की वीरता और साहस का लोहा अंग्रेज मान गए, लेकिन उन्होंने रानी का पीछा किया।

कालपी में महारानी और तात्या टोपे ने योजना बनाई और अंत में नाना साहब, शाहगढ़ के राजा, वानपुर के राजा मर्दनसिंह आदि सभी ने रानी का साथ दिया। रानी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया और वहां के किले पर अधिकार कर लिया। विजयोल्लास का उत्सव कई दिनों तक चलता रहा लेकिन रानी इसके विरुद्ध थीं।

यह समय विजय के जश्न का नहीं था बल्कि रानी अपनी शक्ति को सुसंगठित कर अगला कदम बढ़ाने पर विचार कर रही थी।  इधर जनरल स्मिथ और मेजर रूल्स रानी का पीछा करते रहे और आखिरकार वह दिन भी आ गया जब उसने ग्वालियर का किला घमासान युद्ध करके अपने कब्जे में ले लिया। रानी लक्ष्मीबाई इस युद्ध में भी अपनी कुशलता का परिचय देती रहीं।

18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया और आखिर में उन्होंने वीरगति प्राप्त की। रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी जीवन की कुर्बानी देकर राष्ट्रीय रक्षा के लिए बलिदान का संदेश दिया। ऐसी थी महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की जिंदगी जो हमारे लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं।

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