Premchand Death Anniversary: कलम का वो सिपाही जिसने कहानियों को जीवंत बना दिया

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Premchand Death Anniversary: कलम का वो सिपाही जिसने कहानियों को जीवंत बना दिया

Premchand Death Anniversary: “प्रेमचंद का एक चित्र मेरे सामने है, पत्नी के साथ फोटो खिंचा रहे हैं। सिर पर किसी मोटे कपड़े की टोपी, कुरता और धोती पहने हैं। कनपटी चिपकी है, गालों की हड्डियां उभर आई हैं, पर घनी मूंछें चेहरे को भरा-भरा बतलाती हैं।

पांवों में केनवस के जूते हैं, जिनके बंद बेतरतीब बंधे हैं। लापरवाही से उपयोग करने पर बंद के सिरों पर की लोहे की पतरी निकल जाती है और छेदों में बंद डालने में परेशानी होती है। तब बंद कैसे भी कस लिए जाते हैं।


दाहिने पांव का जूता ठीक है, मगर बाएं जूते में बड़ा छेद हो गया है जिसमें से अंगुली बाहर निकल आई है।

मेरी दृष्टि इस जूते पर अटक गई है। सोचता हूं फोटो खिंचवाने की अगर यह पोशाक है, तो पहनने की कैसी होगी? नहीं, इस आदमी की अलग-अलग पोशाकें नहीं होंगी—इसमें पोशाकें बदलने का गुण नहीं है। यह जैसा है, वैसा ही फोटो में खिंच जाता है।

मैं चेहरे की तरफ देखता हूं। क्या तुम्हें मालूम है, मेरे साहित्यिक पुरखे कि तुम्हारा जूता फट गया है और अंगुली बाहर दिख रही है? क्या तुम्हें इसका जरा भी अहसास नहीं है? जरा लज्जा, संकोच या झेंप नहीं है? क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि धोती को थोड़ा नीचे खींच लेने से अंगुली ढक सकती है?


मगर फिर भी तुम्हारे चेहरे पर बड़ी बेपरवाही, बड़ा विश्वास है! फोटोग्राफर ने जब ‘रेडी-प्लीज’ कहा होगा, तब परंपरा के अनुसार तुमने मुसकान लाने की कोशिश की होगी, दर्द के गहरे कुएं के तल में कहीं पड़ी मुसकान को धीरे-धीरे खींचकर ऊपर निकाल रहे होंगे कि बीच में ही ‘क्लिक’ करके फोटोग्राफर ने ‘थैंक यू’ कह दिया होगा। विचित्र है यह अधूरी मुस्कान। यह मुस्कान नहीं, इसमें उपहास है, व्यंग्य है!”

ये अंश है उस निबंध का जिसे हिंदी के महान व्यंगकार हरिशंकर परसाई ने प्रेमचंद की एक तस्वीर पर लिखा था जिसमें उन्होंने एक फटा जूता पहना था। इस निबंध को परसाई ने प्रेमचंद की सादगी से प्रभावित होकर लिखा था। इस निबंध के जरिए उन्होंने दिखावे की प्रवृत्ति पर तंज भी कसा था।

कोई कितना जमीन से जुड़ कर लिख सकता है?, कोई अपने आस पास की होने वाली घटनाओं पर कितना ध्यान दे सकता है? इन सारे सवालों का जवाब प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में मिलता है। किरदार और कहानियां ऐसी की मानों हमारे ही आस पड़ोस की कहानी हो। प्रेमचंद इतना सरल और जीवंत लिखते हैं कि कई बार पढ़ने का जी करे।

प्रेमचंद को उनके पुत्र और प्रसिद्ध साहित्यकार अमृतराय ने ‘कलम का सिपाही’ नाम दिया था। प्रसिद्ध बंगाली उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने भी उन्हें उपन्यास सम्राट की उपाधि दी थी।

प्रेमचंद की लोकप्रियता आम जन में इतनी थी कि उनके जन्मस्थल लमही में उनका एक मंदिर भी बनाया गया है। उनकी लोकप्रियता की ही देन है कि हिन्दी साहित्य का जिक्र होते ही जेहन में शायद पहला नाम प्रेमचंद का ही आता है।

प्रेमचंद का जन्म वाराणसी के पास लमही गांव में हुआ था उनका असली नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद का खासा योगदान है।

‘सेवासदन’ (1918), ‘प्रेमाश्रम’ (1921), ‘रंगभूमि’ (1925), ‘कायाकल्‍प’ (1926), ‘निर्मला’ (1927), ‘गबन’ (1931), ‘कर्मभूमि’ (1932), ‘गोदान’ (1936) जैसे प्रेमचंद के कुछ उपन्यान ने हिन्दी साहित्य की दिशा बदल दी। इसके अलाव प्रेमचंद ने कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में अपना योगदान दिया है। 8 अक्टूबर 1936 को प्रेमचंद का निधन हो गया था।

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